प्रा.मनोजकुमार वामन वायदंडे
हिंदी विभागाध्यक्ष,
कला,विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय ओझर (मिग), नाशिक
सारांश
(Abstract)-
भारत जैसी बहुभाषिक और
बहुसांस्कृतिक समाज-रचना में अनुवाद एक अनिवार्य बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया
है। भारतीय भाषाओं की विविधता न केवल साहित्यिक परंपराओं को समृद्ध बनाती है, बल्कि उनके परस्पर संवाद को भी
आवश्यक बनाती है। अनुवाद इस संवाद को सक्रिय करता है और ज्ञान, साहित्य, इतिहास तथा सांस्कृतिक अनुभवों
को एक भाषा से दूसरी भाषा तक पहुँचाने का सेतु कार्य करता है। प्राचीन काल से लेकर
आधुनिक समय तक भारतीय भाषाओं के बीच साहित्य का रूपांतरण राष्ट्रीय अध्येता-दृष्टि
और सांस्कृतिक एकता को मजबूत करता रहा है।
हालाँकि
अनुवाद में सांस्कृतिक संदर्भों, मुहावरों, ध्वन्यात्मक भिन्नताओं और
शैलीगत विशेषताओं को बनाए रखना एक चुनौती है, फिर
भी यह प्रक्रिया भाषाओं की जीवंतता और साहित्य की पहुँच को व्यापक बनाती है।
भारतीय भाषाओं के अनुवाद के माध्यम से स्थानीय, क्षेत्रीय
और लोक-परंपराओं को राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर पहचान मिलती है। इस प्रकार, अनुवाद भारतीय भाषाओं को
जोड़ने, समृद्ध करने और व्यापक
सांस्कृतिक संवाद स्थापित करने वाला महत्वपूर्ण माध्यम है।
मुख्य
शब्द (Keywords): अनुवाद,
भारतीय भाषाएँ, अंतरभाषिक अनुवाद, सांस्कृतिक हस्तांतरण, भाषा-विविधता, भाषा-संपर्क,
भावानुवाद, शाब्दिक अनुवाद
प्रस्तावना
अनुवाद प्रक्रिया का विकास आधुनातन प्रवृत्ति है । अनुवाद
का जीवन में अनन्य साधारण महत्व रहा है । दुनिया में जन्मा हर व्यक्ति अपनी भाषा
को तो जनता है, पर दूसरे प्रांत की
भाषा उसे अवगत नहीं होती । अत: वह दूसरे प्रति अथवा प्रांत के लोगों के विचारों की
नहीं जान पाता । विचार निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । हर समान प्रांत प्रदेश की
अपनी भाषा और संस्कृति होती है । भूमंडलीकरण के इस दौर में हर व्यक्ति चाहता है की
वह अपने विचारों को दूसरों त पहुंचाए और दूसरों के विचार खुद भली-भाँति समझे । अब
इसमें व्यक्त में कौन सा साधन है, जो
इस समस्या को हल कर सके ? इस
प्रश्न का समाधान अनुवादित कृतियों को पढ़ने से होता है । प्रस्तुत शोधलेख में
भारतीय भाषाओं में अनुवाद की स्थिति और गति का अध्ययन अभिप्रेत है । सभी भारतीय
भाषाओं के अनुवाद पर अतिसंक्षेपी चितन का कारण शोधलेख की परिधि में नहीं आता इसलिए
यहाँ केवल मराठी भाषा के अनुवाद को देखा जा रहा है । अनुवाद के क्षेत्र में भारतीय
भाषा के अवदान को देखने से पूर्व अनुवाद का अर्थ, स्वरूप और इसकी विविध परिभाषों से अवगत होना आवश्यक है । इससे पता चलेगा की अनुवाद क्या है ।
अनुवाद का अर्थ :-
अनुवाद शब्द ‘वद’ धातु में ‘अनु’
उपसर्ग और धत्र प्रत्यय के योग से बना है । अनु+वद+(घत्र प्रत्यय) = अनुवाद । वद
का अर्थ है – बोलना या कहना और अनु का अर्थ होता है – पीछे, बाद में । इस तरह से
‘अनुवाद’ का शाब्दिक अर्थ हुआ – किसी के कहने के बाद कहना । प्रस्तुत अर्थ
विश्लेषण से या बोध होता है की अनुवाद याने दुबारा बोलना, आवृत्ती या पुनरावृत्ति का प्रयास । वस्तुत: अनुवाद में
यहीं किया जाता है । अर्थात अनुवाद वह होता है जो किसी विशेष को पुन:अभिव्यक्त
करता है ।
अनुवाद का स्वरूप :-
किसी वस्तु, व्यक्ति या प्रकृति के रूप का अध्ययन और विश्लेषण उस
व्यक्ति ,वस्तु या प्रकृति के व्यक्त, अव्यक्त सौन्दर्य का स्वरूप होता है । अनुवाद की प्रकृति
पुनराभ्यास से होती है । अर्थात किसी कृति को दूसरी भाषा से मूल रचना
प्रकृति के साथ उतारना अनुवाद है । अनुवादक को भाषांतरकार भी कहा जाता है ।
भाषांतर केवल भाषा के अंतर को नहीं कहा जा सकता, अपितु भावांतर को कहा जाता है । इसका स्पष्ट अर्थ यह है की
अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तित भावस्पर्श को कहा जाता है । अनुवाद के
स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अनुवाद को परिभाषाओं को देखना चाहिए ।
१. कैलाशचंद्र भाटिया :-
अनुवाद
वह प्रविधि है, जिसके माध्यम से एक
भाषा में यहीं गई बात को/ विचार को/ सामग्री को दूसरी भाषा में उसी क्षमता के साथ
कह दिया जाए ।२
२. डॉ. भोलानाथ तिवारी :-
भाषा
ध्वन्यात्मक प्रतीकों की व्यवस्था है और अनुवाद है इन्हीं प्रतिकों के स्थान पर
दूसरी भाषा के निकटतम (कथन और कथ्य) समतुल्य और सहज प्रतिकों का प्रयोग। इसप्रकार “अनुवाद निकटतम समतुल्य और
सहज प्रतिप्रतिकण प्रक्रिया है ।” ३
प्रस्तुत
विद्वानों की परिभाषाओं को देखने से पता चलता है की अनुवाद का अर्थ परिवर्तन से
है । यह परिवर्तन विशेअनुकूल और मूल
स्त्रोत भाषा के अनुकूल होता है ।
३. गार्गी गुप्त : - “अनुवाद प्रक्रिया के दो मुख्य अंग होते
हैं। अर्थबोध और व्याकरण सम्मत भाषा में स्पष्ट संप्रेषण। इसीलिए अनुवाद की निष्ठा
दोवुखी होती है, मूल रचनाकर के प्रति
अर्थबोध की दृष्टि से और पाठक के प्रति शुद्ध तठा सुबोध संप्रेषण की दृष्टि से।
मूल हचना की जो संकल्पनाएँ अथवा स्थितियाँ औदित रचना के पाठक के लिए अज्ञात
अस्पष्ट या दुऋह हों, उनकी
व्याख्या,
स्पष्छीकरण, अंतर्संबंधों का विवरण देना अत्यावश्यक है। यदि हम पाथक की
वुल रचना की मनोहारी भूमि में संदेह ले जाना चाहते हैं तो उसका वह मनोहर स्वरुप
यथावत उसके मन में भी प्रतिबिम्बित होना चाहिए।” ४
४. जी. गोपीनथन : - “अनुवाद वह द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है
जिसमें स्त्रोत पाथ की अर्थ संरचना(आत्मा) का लक्ष्य पाठ की शैलीगत संरचना ( शरीर
) द्वारा प्रतिस्थापन होता है।”५
५. डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी : - “एक भाषा में व्यक्त भावों या
विचारों को दूसरी भाषा में समान और सहज रुप से व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है।”
६. पट्टनायक : - “अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सार्थक
अनुभव (अर्थपूर्ण संदेश या संदेश का अर्थ) को एक भाषा-समुदाय से दूसरे भाषा समुदाय
में संप्रेषित किया जाता है।”
७. डॉ. सुरेशकुमार :- “एक भाषा के विशिष्ट भाषा भेद के विशिश्ट
पाठ को दूसरी भाषा में इस प्रकार प्र्स्तुत करना अनुवाद है जिसमें वह मुल के भाशिक
अर्थ,
प्र्योग के वैषिश्ट्य से निष्पन्न अर्थ, प्रयुक्ति और शिली की विशिषता, क्विशय वस्तु तथा संबंध सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को यथासंभव
संरक्षित रखते हुए दूसरी भाषा के पाठक को स्वाभ्हाविक रुप से ग्राह्य प्रतित होता
है।”
८. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव : - “एक भाषा (स्त्रोत भाषा) की पाठ
सामग्री में अंतर्निहीत तथ्य का समतुल्यता के सिधांत के आधार पर दूसरी भाषा
(लक्ष्य) में संगठनात्मक ऋपंतरण अथवा सर्जनात्मक पुनर्गठन को ही अनुवाद कहा जाता
है।”
९. डॅअ स्टर्ट : - “हमारे अर्थ विचार में भाषा का गुण है। किसी
भी स्त्रोत भाषा के पाठ का अर्थ अपना होता है और लक्ष्य भाषा के पाठ का अर्थ भी
अपना होता है।“
१०.
नाइडा : - “अनुवाद का संबंध स्त्रोत भाषा के सम्देश का पहले अर्थ और फिर शैली के
धरातल पर लक्ष्य
भाषा के
द्न्कटतम,
स्वाभाविक तथा तुल्यार्थक उपादान प्रस्तुत करने से होता है।”
११.
कैटफर्ड
: - “अनुवाद एक भाषा के पाठ्परक उपादानों क दूसरी भाषा के रुप में समतुल्यता के
सिद्धात के
आधार पर प्रतिस्ठापन है।”
१२.
फोर्स्टन
: - “एक भाषा में अभिव्यक्त पाठ के भाव की रक्षा करते हुए – जो सदैव संभव नहीं
होता दुसरी
भाषा में उतारने का नाम अनुवाद है।”
१३.
सॅम्युअल जॅ न्सन : - “अनुवाद मुल भावों की रक्षा करते हुए उसे दूसरी भाषा में बदल
देना है।”
१४.
जॅअन कॅअन्गटन :- “अनुवादक को उसके अनुवा का तो प्रयास करना ही है, किंतु जिस ढंग से कहा है उसके
निर्वाह का भी प्रयाक सरना चाहिए।”
१५.
मैथ्यू अऍर्नाल्ड : - “अनुवाद ऎसा होना चाहिए कि उसका वही प्रभाव पडे जो वूल का
उसके
पहले श्रोताओं पर पडा होगा। ”
१६.
विलियम कूपर : - “अनुवाद की निष्ठा ही
उसकी आत्मा है और फिर निष्ठा का अर्थ भी तो यही
है।”
भारतीय भाषाएं और अनुवाद परंपरा :-
हिंदी भारत की बहुप्रचालित भाषा रही
है । वर्तमान समय में भारतवर्ष में कुल २८ राज्य तथा ८ केंद्र शासित प्रदेश है । इनमें से १० राज्य हिंदी भाषी
क्षेत्र कहे जाते है । इन प्रमुख प्रदेशों में हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली (केंद्र शासित), हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तरांचल, छतीसगड़ और झारखंड आदि प्रमुख है ।
इनके अतिरिक्त बचे हुए राज्य अहिंदी
भाषी क्षेत्र है। इनमें असं, उड़ीसा, बंगाल। मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, आंध्रप्रदेश,त्रिपुरक, अरुणाचल
प्रदेश,
मिजोरम, जम्मू-कश्मीर, गुजरात,पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, गोवा
आदि का समावेश होता है । इनके अतिरिक्त केंद्रशासित प्रदेशों के अंतर्गत अंदमान
-निकोबार,
चण्डीगड़, दमन
और दीव, पॉनदीचेरी, लक्षद्वीप अदड़ी प्रदेशों का अहिंदी प्रदेशों में समावेश
होता है ।
इन सभी हिंदी भाषा तथा अहिंदी भाषी
क्षेत्रों से हिंदी का प्रयोग संपर्क भाषा अथवा राष्ट्रभाषा के रूप में सदियों से
होता आ रहा है । ये भाषाएं मूलत: भारोपीय परिवार की है । अत:
इनमें अनुवाद करना और अनुवाद के माध्यम से विचारों का प्रकटीकरण करना अत्यंत
महत्वपूर्ण और आवश्यक कार्य है ।
मराठी से हिंदी में अनुवाद की स्थिति :-
मराठी से हिंदी में अनुवाद कई पैमाने
में हुआ है । लगभग साहितीक विधाओं के और साहितेतर कतिपय रचनाओं के अनुवाद पाए जाते
है । साहितेत्तर एतिहासिक ग्रंथों में आधुनिक भारत १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम और
मराठे और अंग्रेज आदि ग्रंथों के अनुवाद हुए है । पुणे के सावरकर के हिंदुपत
पातशाही,
सहा सोनेरी पाने, हिन्दुत्व आदि ग्रंथों के अनुवाद हुए है । दर्शन ग्रंथों
में गीत प्रवचन, गीता रहस्य, स्थितप्रज्ञ दर्पण, आदि कई ग्रंथों के अनुवाद हुए है । इन ग्रंथों के अतिरिक्त
कई आध्यात्मिक ग्रंथों के अनुवाद हुए है । इस क्षेत्र में पुणे की महाराष्ट्र
राष्ट्रभाषा सभा पुणे के अनेकों अनूदित पुस्तहकों का उल्लेख किया जा सकतहाई, जो अनुवाद परंपरा की स्थिति को दर्शाती है । इन पुस्तकों
में व्यक्तशस्त्र, भारत-चीन
संघर्ष,
ऋतुचक्र, चट्टान
का बीटा,
मराठी की नई कहानियाँ, आमिर, सपन
सुहान,
बादशाह खान आदि प्रमुख है ।
मराठी से हिंदी भाषा में केवल
साहित्येतर ही नहीं अपितु उपन्यास, कहानी, नाटक, कविता, एकाँकी, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, आदि
साहित्यिक का संक्षिप्त विवरण निम्न आलेख में आबद्ध किया गया है ताकि यह अनुमान
लगे की एक-एक लेखक ने कई मराठी पुस्तकों के अनुवाद किए है वामन घोरपड़े, प्रभाकर माचवे,रघुनाथ सर्वदे, वसंद देव आदि इस क्षेत्र के पुराने नाम है इन पर कुछ शोध
निबंधों में उल्लेख मिलता है ।
उपर्युक्त सामग्री का वर्गीकरण इस लिए
दिया गया कई ताकि इस क्षेत्र के अनुसंधाता समझे की मराठी से हिंदी में अनेक अनुवाद
हुए है । इस अनुवादकों के अतिरिक्त कतिपय ऐसे अनुवादक है, जिन्होंने इस क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य किया है । आलेख
विस्तार के भी से इनका यहाँ विस्तार से परिचय कराना ठीक न होगा । अत: इस प्रमुकज
अनुवादकों के नामों का उल्लेख किया जा रहा है जिन्होंने हिंदी अनुवाद परंपरा को
उज्ज्वल रूप प्रदान किया है – इनमे काका कालेलकर, राशिनकर, रंजन
परमार,
ग.वा. कर्मरकर,सूर्यनारायण रणसुभे, डॉ. स्मिता साठे, डॉ. अर्जुन चव्हाण, डॉ. सुनीलकुमार लवते, डॉ. गजानन चव्हाण, डॉ.तुकाराम पाटील, डॉ. पद्मजा घोरपड़े, डॉ. व्ही एन
भालेराव,
डॉ. सदानंद भोसले, डॉ पद्मजा पाटील आदि प्रमुख है । इनके अलावा भी और
अनुवादकों की सूची दि जा सकती है ।
निष्कर्ष :-
वस्तुत: अनुवाद एक ऐसी महत्वपूर्ण
विधा है,जो दो भाषाओं,दो संस्कृतियों के बीच सेतु का काम करती है। अनुवाद मात्र
भाषांतर ही नहीं है, बल्कि भिन्न भाषा-भाषियों को सम-भूमि पर प्रतिष्ठित
करके सत्ता के साथ वाणी प्रदान करनेवाली एक महत्वपूर्ण विधा है । आज अनुवाद का
व्यवस्थित ढंग में लगातार विकास हो रहा है । किसी भी देश समाज की साहित्यिक और
सांस्कृतिक उत्कृष्टता का दर्पण मौलिक रचनाओं के समान ही अनुवाद भी होता है । यहीं
नहीं अनुवाद ही वह सशक्त मध्यमम है जिसकी सहायता से विभिन्न
सभ्यता-संस्कृतियो-धर्मो
और सामाजिक स्तरो से देश-विदेश से संवाद स्थापित हो पाता है ‘वसुधैवम कुटुंबम’ के
विचार को स्थापित करने और संपूर्ण विश्व में ज्ञान-विज्ञान, नवीनतम जानकारी को दुसरी भाषा में प्रस्तुत करने का श्रेष्ठ माध्यम अनुवाद
ही है राष्ट्रीय एकता के मंत्र को भी पूर्ण करने वाला सिद्ध होता है वस्तुत:
अनुवाद यह महत्वपूर्ण विधा है जिससे राष्ट्र में विद्यमान विविध भाषाओ या बोलीयो
के ज्ञान और विचारो को वाणी भी मिलती है अनुवाद राष्ट्र की एकता को बनाये रखने का
सशक्त माध्यम है इस सशक्त माध्यम को महाराष्ट्र के अनुवादको ने और अधिक सशक्त बना
दिया है प्रस्तुत आलेख में मराठी भाषी अनुवाद्को के अनुवाद का अतिसंक्षिप्त में
विश्लेषण हुआ है, जो कि पूर्ण नही है इस अपूर्णता के पीछे
आलेख विस्तार का भय ठ पर यहां में स्पष्ट करना चाहता हु कि मराठी भी एक भारतीय
भाषा है और भारतीय भाषाओं के माध्यम से परस्पर विचारो का लेन-देन अनुवाद से ही
संभव हो पाता है
संदर्भ
·
गणेश देवी – भारतीय साहित्य आलोचना : परंपरा और परिवर्तन
·
तेजस्विनी निरंजन – साइटिंग ट्रांसलेशन (अनुवाद, इतिहास और औपनिवेशिक संदर्भ)
·
ए. के. रामानुजन – काव्य और अनुवाद : निबंध संग्रह (हिंदी अनुवाद
उपलब्ध)
·
ज्ञानरंजन (सं.) – अनुवाद : सिद्धांत और व्यवहार
·
डॉ. नीलम श्रीवास्तव (सं.) – अनुवाद : विमर्श और विश्लेषण
·
डॉ. शशिकांत सिंह (सं.) – अनुवाद : भाषा और संस्कृति
·
प्रो. रामदरश मिश्र (सं.) – भारतीय भाषाओं का अनुवाद साहित्य

