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Sahitya Samhita Journal ISSN 2454-2695

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अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस : विभिन्न भाषाओं की विविधता का एक उत्सव


दोस्तों आज अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है जिसे ना कि सिर्फ़ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में मनाया जाता है और प्रोत्साहित किया जाता है सभी को अपनी मातृभाषा बोलने के लिए आइए हम इस के बारे में और विस्तार से जानते हैं।



अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का प्रारंभ :- दरअसल सर्वप्रथम इसकी घोषणा यूनेस्को द्वारा 17 नवंबर, 1999 को की गई थी और जिसे विश्व द्वारा 21 फरवरी वर्ष 2000 से मनाया जाने लगा। और तब से हम इसे  हर वर्ष मनाते आ रहे है। इसका उद्देश्य राज्यों तथा छोटे - छोटे नगरों एवं गाँवों में बोले जाने वाली मातृभाषाओं का संरक्षण तथा उनके उपयोग को प्रोत्साहन देना हैं ।




दरअसल सर्वप्रथम इसकी घोषणा यूनेस्को द्वारा 17 नवंबर, 1999 को की गई थी और जिसे विश्व द्वारा 21 फरवरी वर्ष 2000 से मनाया जाने लगा। और तब से हम इसे  हर वर्ष मनाते आ रहे है। इसका उद्देश्य राज्यों तथा छोटे - छोटे नगरों एवं गाँवों में बोले जाने वाली मातृभाषाओं का संरक्षण तथा उनके उपयोग को प्रोत्साहन देना हैं ।








भारत में हिंदी और अंग्रेजी तो बोली ही जाती है लेकिन उसके साथ ही 22 भाषाओं को संवैधानिक रूप से भारत में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है तथा साथ ही बोली जाती है सैकड़ो बोलियाँ व उप बोलियाँ इनमें


1. असमिया

2. बंगाली

3. बोडो

4. डोंगरी

5. गुजराती

6. तमिल

7. तेलुगू

8. हिंदी

9. उर्दू

10.सिंधी

11. संथाली

12. संस्कृत

13. पंजाबी

14. ओरिया

15. नेपाली

16. मराठी

17. मणिपुरी

18. मलयालम

19.मैथिली

20. कश्मीरी

21. कनड़

22. कोंकड़ी शामिल हैं।




राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियाँ :-  उद्योतन सूरी ने अपने ग्रन्थ ‘कुवलयमाला ’ में 18 देशी भाषाओं का उल्लेख किया था, जिसमें राजस्थानी को उद्योतन सूरी ने मरुभाषा नाम दिया था।




1912 में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक ‘द लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ में यहाँ की भाषा के लिए राजस्थानी शब्द का प्रयोग किया था।





मारवाड़ी : – इसे मरु भाषा भी कहा जाता हैं तथा यह राजस्थान की स्टैण्डर्ड/मानक बोली हैं। मारवाड़ी राजस्थान की सबसे प्राचीन बोली हैं और यह राजस्थान के सर्वाधिक क्षेत्रफल में बोली जाने वाली बोली हैं। जैन साहित्य व मीरां साहित्य इसी भाषा में है, रजिया के सोरठे पूर्वी मारवाड़ी में है जबकि पृथ्वीराज राठौड़ का ग्रन्थ बेलिकिशन रूकमणी री ख्यात उतरी मारवाड़ी में हैं।





मारवाड़ी की उपबोलियां : - गोड़वाड़ी – यह बोली जालौर के आहोर से पाली के बाली के बीच बोली जाती हैं, बीसलदेव रासौ की रचना इसी बोली में हैं।

देवड़ावाटी/सिरोही – यह बोली सिरोही के आसपास बोली जाती हैं।

शेखावाटी – यह बोली सीकर, झुंझुंनू व चुरू में बोली जाती हैं।

मारवाड़ी की अन्य उपबोलियां थली/बीकानेरी, माहेश्वरी, ओसवाली, ढ़टकी आदि हैं।







ढूंढाड़ी :- इस बोली को झाड़शाही व जयपुरी के नाम से भी जाना जाता हैं, यह बोली राजस्थान में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली हैं। इस बोली का सबसे प्राचीनतम उल्लेख ‘8 देश गुजरी’ नामक पुस्तक में हैं। संत दादू का अधिकांश साहित्य इसी भाषा में हैं। यह बोली राजस्थान के जयपुर, दौसा, टोंक व अजमेर में बोली जाती हैं।




ढूंढ़ाड़ी की उपबोलियाँ :-

चैरासी- यह बोली टोंक व जयपुर के पश्चिम में बोली जाती हैं।

तोरावाटी – यह बोली नीम का थाना (सीकर) व खेतड़ी (झुंझुंनू) के आस पास बोली जाती हैं।

विशेष- कान्तली नदी का बहाव क्षेत्र भी तोरावाटी के नाम से जाना जाता हैं।

काठेड़ा – यह बोली जयपुर के पश्चिम तथा टोंक के क्षेत्र में बोली जाती हैं।

नागरचाल – यह बोली मुख्यतः सवाईमाधोपुर के आसपास बोली जाती हैं।

राजावाटी – जयपुर के पूर्वी भागों यह बोली बोली जाती हैं।







मेवाती :- मेवाती राजस्थान में अलवर, भरतपुर, धौलपुर व करौली में बोली जाती हैं। मेवाती पश्चिमी हिन्दी व राजस्थानी के मध्य सेतू का कार्य करती हैं।

मेवाती में चरणदासजी, लालदासजी, सहजोबाई व दयाबाई की रचनाएं हैं।

मेवाती की उपबोली :- अहीरवाटी/राठी/हीरवाल/हीरवाटी- यह बोली यादवों द्वारा बोली जाती हैं तथा यह बोली कोटपूतली (जयपुर) व अलवर में बोली जाती हैं।

जोधराज का ग्रन्थ हम्मीर रासौ इसी बोली में हैं। अहीरवाटी हरियाणवी की बांगरू व मेवाती के मध्य सेतू का कार्य करती हैं।







हाड़ौती :- हाड़ौती को ढूँढ़ाड़ी की उपबोली माना जाता हैं, हाड़ौती का सर्वप्रथम उल्लेख 1875 ई. के केलांग के हिन्दी व्याकरण में मिलता हैं। बूंदी के कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की अधिकांश रचनाएं इसी में ही हैं इसका प्रसिद्ध ग्रन्थ वंश भास्कर भी इसी में हैं।








मालवी :- यह बोली राजस्थान की सबसे मधुर व कर्णप्रिय बोली हैं, यह राजस्थान की ऐसी बोली है जिस पर मराठी का प्रभाव पड़ा हैं।

मालवी मूलतः मध्यप्रदेश की बोली हैं, लेकिन राजस्थान में इस बोली को मारवाड़ी व ढ़ूढ़ाड़ी का मिश्रण माना जाता हैं।

राजस्थान में यह बोली झालावाड़, कोटा व प्रतापगढ में बोली जाती हैं। इसकी उपबोलियां नीमाड़ी व रागड़ी हैं।

नीमाड़ी :- यह बोली दक्षिणी- पूर्वी राजस्थान में बोली जाती हैं।


रागड़ी :– यह बोली मेवाड़ के ग्रामीण क्षेत्रों में राजपूतों द्वारा बोली जाती हैं। इस बोली को कर्कष आवाज में बोला जाता हैं। रागड़ी मालवी व मारवाड़ी का मिश्रित रूप हैं।


खेराड़ी :- यह बोली ढ़ूढ़ाड़ी, मेवाड़ी व हाड़ौती का मिश्रित रूप हैं। यह बोली भीलवाड़ा के शाहपुरा व बूंदी के मालखेड़ में बोली जाती हैं।




पंजाब में बोली जाने वाली बोलियाँ :- पंजाब मे बहुत बोलियां बोली जाती हैं, प्रमुख बोलियाँ 4 हिस्सों में बांटी जा सकती है : पहली माझी भारत में यह अमृतसर, तरनतारन साहिब, पठानकोट और पंजाब राज्य के गुरदासपुर जिलों में बोली जाती है।





मध्यप्रदेश :- में बघेली,मालवी, निमाड़ी ,और भीली, बोलियों के साथ ही कोरकू, गोंडी,  जैसी बोलियां बोली जाती है ! पवारी,लोंधाती,और खटोला बनाफरी, कुंडली, आगरा मैनपुरी और इटावा में भदावरी भंडारा की कोषटी बोली छिंदवाड़ा और बुलढाणा के कुमारों की बोलीयां प्रसिद्द है।




उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड :- वहीं उत्तर प्रदेश, बिहार तथा झारखंड में मुख्य रूप से खोरठा, बंगला, संताली तथा नगपुरिया एवं हिन्दी के साथ - साथ बुंदेलखंडी, भोजपुरी तथा ब्रज भाषा का प्रयोग मुख्य रूप से होता है।





केरल की भाषा मलयालम है जो द्रविड़ परिवार की भाषाओं में एक है। मलयालम भाषा के उद्गम के बारे में अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं। एक मत यह है कि भौगोलिक कारणों से किसी आदी द्रविड़ भाषा से मलयालम एक स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हुई। इसके विपरीत दूसरा मत यह है कि मलयालम तमिल से व्युत्पन्न भाषा है। ये दोनों प्रबल मत हैं। सभी विद्वान यह मानते हैं कि भाषायी परिवर्त्तन की वजह से मलयालम उद्भूत हुई। तमिल, संस्कृत दोनों भाषाओं के साथ मलयालम का गहरा सम्बन्ध है। मलयालम का साहित्य मौखिक रूप में शताब्दियाँ पुराना है। परंतु साहित्यिक भाषा के रूप में उसका विकास 13 वीं शताब्दी से ही हुआ था। इस काल में लिखित 'रामचरितम' को मलयालम का आदि काव्य माना जाता है।