Sahitya Samhita

Sahitya Samhita Journal ISSN 2454-2695

Hindi Articles

6/recent/ticker-posts

श्रीमद्भगवद्गीता में निहित अधिगम की प्रमुख पद्धतियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन Hindi Research Paper

 श्रीमद्भगवद्गीता में निहित अधिगम की प्रमुख पद्धतियों का

विश्लेषणात्मक अध्ययन

1डॉ. अखिलेश कुमार विश्वकर्मा

2डॉ. उपेन्द्र बाबू खत्री

3सजन सिंह बघेल

1सहायक प्राध्यापक (योग) लकुलीश योग विश्वविद्यालय, जाखन, (गुजरात)

Email. akhilhariom123@gmail.com

2सहायक प्राध्यापक (योग) साँची बौद्ध-भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय, साँची (मध्यप्रदेश)

3पंचकर्म टेक्नीसियन,  पं. खुशीलाल शर्मा शासकीय स्वशासी आयुर्वेद महाविद्यालय एवं संस्थान भोपाल (मध्यप्रदेश)

सार संक्षेपिका-  

भारतीय धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म की श्रृंखला में श्रीमद्भगवद्गीता का महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी प्रासंगिकता वर्तमान से लेकर आने वाले युग-युगों तक यथार्थ रूप से बनी रहेगी। श्रीमद्भगवद्गीता जीवन के प्रत्येक पहलु पर मार्गदर्शन करने के साथ-साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिगम की श्रेष्ठ अवधारणा को पुष्ट करती है।

अधिगम या सीखना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया निहित होती है। सामान्यतया मनुष्य जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है ऐसी स्थिति में कर्णीय-अकर्णीय  कर्म का बोध नहीं रहता है। मनुष्य उन समस्याओं से लड़ने की वजह समस्याओं से भागने का प्रयत्न अथवा पलायन करने लगता है। ऐसी स्थिति में भगवान श्रीकृष्ण गीता उपदेश के माध्यम से अर्जुन को कर्त्तव्य पथ पर अभय एवं अनासक्त भाव से कर्म करना सिखाते हैं। इस प्रकार गीता विपरीत परिस्थितियों एवं समस्याओं में भय से अभय एवं राग-द्वेष से मुक्त होकर स्वधर्मानुसार कर्म का अधिगम कराती है।

मुख्य शब्दः अधिगम, योगविद्या, द्वन्द्व, कर्म, अनासक्त कर्म।

 


प्रस्तावना

श्रीमद्भगवद्गीता धर्म, अध्यात्म एवं जीवन दर्शन के ग्रंथों में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं सार्वकालिक उपयोगी ग्रंथ है। इस ग्रंथ में पिण्ड-ब्रह्माण्ड, भक्त-भगवान, जीवन-मृत्यु, शरीर-आत्मा, कर्म-अकर्म, आसुरी-दैवीय आदि तत्वों के गूढ़ रहस्यों पर प्रकाश डाला गया है। श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्याय महाभारत के भीष्मपर्व से 25-42 तक के अध्याय लिये गये हैं। यह ग्रंथ मानवीय मूल्यों एवं सिद्धान्तों को आचरण में लाकर अपनी आध्यात्मिक पूर्णावस्था को प्राप्त करना सिखाता है। यह ग्रंथ स्वर्धमानुसार कर्म को करने का मार्ग सिखाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में निहित अधिगम की प्रक्रिया में जीवन से सम्बंधित सारी समस्याओं का समाधान निहित है। जब व्यक्ति अज्ञान के बंधन से मुक्त रहकर लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार को त्यागकर निष्काम कर्म के मार्ग पर चलकर आत्मोत्थान को प्राप्त करता है वहीं से उसके आत्मज्ञान के अधिगम की प्रक्रिया का शुभारम्भ हो जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में अधिगम की पृष्ठभूमि-

कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में जब अर्जुन ने अपने ही सगे संबन्धियों को प्रतिद्वन्दियों के रूप में देखा तो वह अपने उत्तरदायित्वों को भूलकर युद्ध के परिणाम को लेकर विषाद की स्थिति में डूब गया। श्रीकृष्ण से न योत्यै इति गोविन्दम्, न योत्यै इति गोविन्दम् कहकर दुःख के अपार सागर में डूब गया और वह कर्म, अकर्म और विकर्म के मार्ग को जानने के लिये श्रीकृष्ण के प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो गया। यही उसके दिव्य ज्ञान के अधिगम की तैयारी थी।

अधिगम की प्रक्रिया में अधिगम कर्ता की भूमिका-

किसी भी अधिगम के लिये अधिगम की तैयारी ही प्रमुख होती है। तैयारी के लिये आवश्यक है कि सीखने वाले का सिखाने वाले के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव हो जैसे अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि मैं अपनी कृपण दुर्बलता के कारण अपना कर्त्तव्य भूल गया हूँ कृपया मेरा मार्गदर्शन करें-

अब मैं अपनी कृपण दुर्बलता के कारण अपना कर्त्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयष्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ कृपया मुझे उपदेश दें।[1]  

श्रीकृष्ण ने विभिन्न तर्क वितर्क से जीवन की यथार्थता के बारे में समझाया। आत्मा के वास्तविक स्वरूप का बोध कराया। जब अर्जुन को शरीर की नश्वरता एवं आत्मा के नित्य स्वरूप का बोध हो गया तब अर्जुन ने कहा- आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करुंगा।[2] सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन के यथार्थ का अधिगम कराया। स्वयं, सृष्टि एवं सृष्टा के वास्तविक स्वरूप को जानकर अपने कर्म, अकर्म एवं विकर्म का बोध ही अर्जुन का अधिगम था।

अधिगम का अर्थ

अधिगम शब्द का सामान्य अर्थ सीखना होता है। सीखने और सिखाने की प्रक्रिया को अधिगम कहा जाता है और यह सीखने और सिखाने की प्रक्रिया मनुष्य, पशु-पक्षियों आदि सभी जीव जन्तुओं में जन्म के समय से ही प्रारम्भ हो जाती है। सीखना शब्द का व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है जिसमें जीव प्रत्येक घटना, परिस्थिति, अन्य प्राणी एवं स्वयं के अनुभव आदि से सीखता है। अधिगम एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें प्राणी जन्म से मृत्यु पर्यन्त निरंतर अबाध गति से कुछ न कुछ सीखता रहता है। यह एक स्वभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसके बिना जीवन संभव नहीं होता। मनुष्य का अन्तिम उद्देश्य पूर्णता अर्थात् जन्म, कर्म के बंधन से मुक्त होकर आत्म कल्याण के मार्ग का अनुगमन करना भी अधिगम है।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार अधिगम

गीता एक ऐसा शास्त्र है, जिसमें सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान समाया हुआ है। इस ग्रंथ में ज्ञान, भक्ति, कर्म एवं ध्यान का अद्भुत सामंजस्य है। अधिगम की दृष्टि से श्रीमद्भगवद्गीता अधिगम का शास्त्र है जहाँ अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण को सखा, गुरू, स्वामी, मार्गदर्शक आदि के रूप में स्वीकार करते हैं और उनसे आत्मविद्या का ज्ञान प्राप्त करता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को स्वधर्म के पालन में निष्काम कर्म की संज्ञा का अधिगम कराते हैं। भगवान श्रीकृष्ण आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध कराने के लिये आत्मा के ऊपर पड़े अविद्यादि के आवरण को हटाने के लिए अर्जुन को ज्ञान, कर्म, भक्ति के विविध मार्गों का ज्ञान प्रदान करते हैं। इन मार्गों का ज्ञान ही अधिगम है।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अनेक विद्याओं का ज्ञान दिया। इन विद्याओं का अधिगम ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मानव हितार्थ के लिये प्रदान किया है। उन विद्याओं में से कुछ इस प्रकार हैं- अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या और ब्रह्म विद्या। अभय विद्या मृत्यु के भय को दूर करती है। साम्य विद्या राग-द्वेष के भावों से मुक्त कर जीव को समत्व के भाव में स्थित करती है। ईश्वर विद्या जीव को अहंकार के भाव से मुक्त करती है। ब्रह्म विद्या से जीव ब्रह्म भाव में स्थित हो जाता है। अनेक ऐसी विद्याओं का अधिगम भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कराया। जिससे मानव अपने आत्म स्वरूप के ऊपर पड़े अविद्या के आवरण को हटाकर आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है। यही मूल अधिगम है जिसकी अवधारणा श्रीमद्भगवद्गीता में व्यवहारिक दृष्टि से समझायी गयी है। श्रीमद्भगवद्गीता में निहित अधिगम की प्रक्रिया जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान है। गीता का अनुगामी मानसिक द्वन्द्वों से मुक्त होकर सदा कार्यरत, निश्चल आनन्दित आत्मा के निकट होने का अनुभव करता है। यही कामना प्रत्येक व्यक्ति, समाज, धर्म एवं जाति समूह की होती है।

श्रीमद्भगवद्गीता में निहित अधिगम की प्रमुख पद्धतियाँ

गुरू-शिष्य परम्परा में श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षण या अधिगम प्रविधियां अन्यत्र दुर्लभ हैं। यहां गुरू-शिष्य का संबंध भक्त-भगवान, सखा, भ्राता आदि रूपों में दृष्टिगोचर होता है। तात्पर्यतः सीखने और सिखाने वाले के मध्य केवल सन्दर्भ के अनुरूप संबंध बदलता जाता है। आज ज्ञान अथवा विद्या केवल गुरू, शिक्षक या आचार्य बनकर ही नहीं दी जा सकती अपितु ज्ञान देने वाले को भाई, माता-पिता, गुरू, सखा आदि भूमिकाओं में भी रहना चाहिये। तब जाकर प्रभावी अधिगम की प्रक्रिया पूरी होगी।    

1.   उपदेश पद्धति

धार्मिक, नैतिक, आध्यात्मिक अथवा जीवन के उन्नयन हेतु दिया गया निर्देश उपदेश कहलाता है। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को स्वधर्म, स्वकर्म एवं स्वरूप में स्थित होने के लिए ही सम्पूर्ण गीता उपदेशित है। जैसे- सबसे श्रेष्ठ योगी है इसलिए योगी बनो,[3] निश्चय करके युद्ध के लिए खड़े हो जाओ,[4] उठो और यश प्राप्त करो,[5] गुरूओं के पास जाओ दण्डवत् प्रणाम कर ज्ञान प्राप्त करो,[6] तुम्हारा अधिकार तुम्हारे कर्म पर है न कि कर्मफल पर अतः कर्त्तव्य कर्म करो,[7] इसी प्रकार ज्ञान, ध्यान एवं भक्ति आदि का गीता में उपदेश भगवान उवाच नाम से वर्णित है। 

2.   प्रदर्शन पद्धति

अधिगम के कुछ विषय प्रदर्शन प्रविधि से संबंधित होते हैं, अधिगमकर्ता द्वारा विषय का अपनी आँख से प्रत्यक्ष करने पर अधिगम सरल एवं प्रभावी हो जाता है। भगवान् गीता में दूसरे से दस अध्याय तक ईश्वरीय सत्ता के नियमों की व्याख्या करते हैं। उस व्याख्या को और अधिक सुगम एवं प्रभावी बनाने के लिए ग्यारहवें अध्याय (विश्वरूपदर्शनयोगः) में भगवान् अपना विराट रूप दिखाते हैं, जिसमें सृष्टि के सम्पूर्ण नियमों की सत्यता का यथार्थ दर्शन कराया गया है। भगवान् का विराट रूप देखकर अर्जुन स्थिर चित्त से अपनी मूल प्रकृति में अवस्थित हो गया।    

3.   चिन्तन-मनन पद्धति

ज्ञान प्रदाता समस्त विषयों के समस्त पक्षों को सम्पूर्णतया से व्याख्यिायित करता है। जिससे ज्ञान गृहीता को उन विषयों एवं निर्णयों पर चिंतन-मनन की समुचित दिशा मिलती है, जो निर्णयों की स्पष्टता में सहायक है। गीता[8] में क्षत्रिय धर्म के विपरीत जाने पर अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण सोचने के लिए कहते हैं कि सोचो इससे दुःखतर स्थिति क्या होगी। सम्पूर्ण गीता ज्ञान देने के बाद श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- गुह्य से गुह्यतर अत्यंत गोपनीय रहस्यपूर्ण ज्ञान मैंने तुम्हें दिया है, अब अच्छी प्रकार से विचार करके जैसी तुम्हारी मर्जी हो वैसा करो।[9] 

4.   प्रयोगात्मक पद्धति

ज्ञान दो प्रकार का होता है एक बौद्धिक और दूसरा अनुभवात्मक। अधिकाधिक विषयों का बौद्धिक ज्ञान प्रयोग द्वारा अनुभवात्मक ज्ञान में रूपान्तरित करना उपयुक्त होता है। क्षत्रिय होने के कारण अर्जुन का धर्मयुद्ध करना कर्त्तव्य कर्म था। अनासक्त भाव से कर्म करने के लिए कर्म के वास्तविक स्वरूप को जानना आवश्यक है, स्वयं के स्वरूप को जाने बगेर कर्म के स्वरूप को नहीं जाना जा सकता है। इसीलिए गीता में श्रीकृष्ण का जोर युद्ध की अपेक्षा स्वयं के वास्तविक स्वरूप को जानने पर था। स्वयं को जान लेने से कर्म एवं स्वधर्म को स्वतः ही जान लिया जाता है। स्वयं को जानने के लिए पवित्र स्थान पर स्थिर आसन लगाकर एकाग्र मन से नासिकाग्र को देखने जैसी प्रायोगिक विधियों का वर्णन श्रीकृष्ण करते हैं।[10] अर्जुन विशिष्ट शिष्य था इसलिए भगवान द्वारा कहा गया ज्ञान अर्जुन के अनुभव में उतर रहा था। जिसके लिए प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी। पर सामान्य मनुष्य के लिए किसी भी ज्ञानार्जन अथवा अधिगम हेतु कुछ प्रायोगिक होना आवश्यक है।  

5.   प्रश्नोत्तर प्रणाली

गीता एक संवादात्मक ग्रंथ है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के मध्य जन्म, कर्म, बंधन, मुक्ति, योग आदि का संवाद रूप में ज्ञान निहित है। यह संवाद मुख्यतः प्रश्न उत्तर शैली में है, जहां अर्जुन प्रश्न पूछते हैं और भगवान उसका उत्तर देते हैं। अन्त में भगवान् अर्जुन से पूछते हैं कि- हे! पार्थ क्या तुमने एकाग्रचित होकर मेरे इस उपदेश को सुना है क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह नष्ट हुआ है।[11] गुरू-शिष्य के मध्य अधिगम तभी प्रभावी होता है जब शिष्य के सारे प्रश्न एवं शंकाएं समाप्त हो जाएं। इसलिए अंत में अधिगम कर्ता से यह पूछना की जो समझाया या जो ज्ञान दिया क्या वह पूर्णतया से समझ आया, यह बहुत आवश्यक है। 

निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता में व्यवहारिक, नैतिक, आध्यात्मिक सभी प्रकार की शिक्षा समाहित है। यह ग्रंथ शिक्षण प्रणालियों में एक स्वतंत्र चिंतन-मनन एवं स्वविवेक को प्राथमिकता देता है। इसमें अनेक शिक्षण विधियां जैंसे- प्रश्नोत्तरी, आत्मचिंतन, उदाहरण, मौन निर्देश, संवाद आदि का समावेश है। गीता में निहित अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या एवं ब्रह्म विद्या जीवन के अज्ञान, अन्धकार, मोह, दु:ख, शोक से मुक्त कर आत्म ज्ञान कराती है। जिसको पाकर मनुष्य सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है और स्वधर्म के मार्ग पर निष्काम भाव से कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। मानव समाज के लिये इसका योगदान अमूल्य है जब तक इस संसार में मानव जाति का प्रादुर्भाव रहेगा। यह ग्रंथ सम्पूर्ण मानव जाति के लिये हमेशा प्रेरक एवं मार्गदर्शक की भूमिका निभाएगा।


 

संदर्भ ग्रंथ सूची

1.    श्रीराम शर्मा :सामवेद संहिता, युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट गायत्री तपोभूमि मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2018

2.    श्रीराम शर्मा :अथर्ववेद संहिता (भाग- 1), युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट गायत्री तपोभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2021

3.    श्रीराम शर्मा :108 उपनिषद्ज्ञानखण्ड, युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट गायत्री तपोभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2016

4.    श्रीराम शर्मा :108 उपनिषद्ब्रह्मविद्याखण्ड, युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट गायत्री तपोभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश, 2015

5.    हरिकृष्णदास गोयन्दका : श्रीमद्भगवद्गीता, शांकरभाष्य हिन्दी अनुवादसहित, गीताप्रेस, गोरखपुर, 2011

6.    रामसुखदास : श्रीमद्भगवद्गीता साधक संजीवनी, गीताप्रेस, गोरखपुर, सत्तानबेवाँ पुनर्मुद्रण, सं 2075

7.    रंगनाथानन्द :श्रीमद्भगवद्गीता का सार्वजनीन सन्देश, प्रथम भाग, द्वितीय और तृतीय भाग, स्वामी ब्रह्मस्थानन्द, रामकृष्ण मठ, नागपुर, द्वितीय पुनर्मुद्रण, 2018

8.    शिवानन्द सरस्वती : श्रीमद्भगवद्गीता, द डिवाइन लाइफ सोसायटी, उत्तराखण्ड, द्वितीय संस्करण, 2016

9.    अपूर्वानन्द : श्रीमद्भगवद्गीता, स्वामी ब्रह्मस्थानन्द, रामकृष्ण मठ, नागपुर, एकादश पुनर्मुद्रण 2016

10. निरंजनानंद सरस्वती :गीता दर्शन, योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार, 2012

11. निरंजनानंद सरस्वती : योग दर्शन, योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार, 2004

12. ओमानन्द तीर्थ : पातंजलयोगप्रदीप, गीताप्रेस, गोरखपुर, पैंतीसवाँ पुनर्मुद्रण, सं 2072

13. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना : मनुस्मृति (संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद), मनोज पब्लिकेशन, दिल्ली, 2014

14. विमला कर्णाटक : योगविद्या-विमर्श, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, 2007

15. धर्मपाल मैनी : मानवमूल्य-परक शब्दावली का विश्वकोश (चतुर्थ खण्ड), सरूप एण्ड सन्ज़, नई दिल्ली, 2005

 

 

 

 



[1] कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। श्रीमद्भगवद्गीता- 2/7

[2] नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव । श्रीमद्भगवद्गीता- 2/73

[3] तस्माद्योगी भवार्जुन। श्रीमद्भगवद्गीता- 6/46

[4] तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। श्रीमद्भगवद्गीता- 2/37

[5] तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व। श्रीमद्भगवद्गीता- 11/33

[6] तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।। श्रीमद्भगवद्गीता- 4/34

[7] कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।। श्रीमद्भगवद्गीता- 2/47

[8] अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।

निन्दन्तस्तव सामथ्र्यं ततो दुःखतरं नु किम्।। श्रीमद्भगवद्गीता- 2/36

[9] इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।। श्रीमद्भगवद्गीता- 18/63

[10] श्रीमद्भगवद्गीता- 6/11-15

[11] कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।

कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।। श्रीमद्भगवद्गीता- 18/72