Sahitya Samhita

Sahitya Samhita Journal ISSN 2454-2695

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हिन्दू नववर्ष पर मनाया गया है नवरात्रि के नौ दिनों का पावन पर्व


दोस्तों यूं तो साल में हम अपना नया साल 31 दिसंबर के बाद 1 जनवरी से आरंभ करते है परंतु हिंदू मान्यताओं के अनुसार नववर्ष यानी नये साल का प्रारंभ चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है । और साथ ही प्रारंभ होता है नवरात्रि के नौ दिनों का यह पावन पर्व...




1. प्रथम है माँ शैलपुत्री :- चैत्रीय नवरात्रि के प्रथम दिन माँ शैलपुत्री की पुजा उपासना करी जाती है, माता शैलपुत्री देवी दुर्गा के नवरूपों में  प्रथम स्वरूप में जानी जाती हैं। माता जी पर्वतराज हिमालय के घर में पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थी इस कारण माँ का  नाम 'शैलपुत्री' पड़ा।नवरात्र पूजन में पहले  दिन इन्हीं माता जी की पूजा तथा उपासना करी जाती है। 



माता को प्रसन्न करने हेतु आप इस मंत्र  तथा श्लोक का जाप कर सकते है।


मंत्र :- ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥

श्लोक :- वन्दे वंछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम् |

वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ||






माँ शैलपुत्री की कथा :- एक बार दक्ष प्रजापति ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना - अपना यज्ञ - यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया था, परंतु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया। सती मैया ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान करने जा रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन भी विकल हो उठा।




अपनी यह इच्छा उन्होंने भगवान शंकरजी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के पश्चात उन्होंने कहा कि प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हम से रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया है साथ ही उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, पर हमें वहाँ नहीं बुलाया है।ऐसी स्थिति में आपका वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।'



शंकरजी के इस उपदेश से देवी सती को प्रबोध नहीं हुआ। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।



सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि  वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। प्रजापति ने उनके प्रति कुछ अपमान जनक वचन भी कहे। यह  देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। 



वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।




सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे 'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं।




2. माँ ब्रह्मचारिणी :- माँ ब्रह्मचारिणी देवी माता दुर्गा का द्वितीय रूप है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ तपश्चारिणी हैं यानी तपस्या करने वाली, माता ब्रह्मचारिणी ने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर एवं कठोर तपस्या करी थी। अतः ये माँ तपश्चारिणी एवं माँ ब्रह्मचारिणी के नाम से सुप्रसिद्ध हैं। देवी ब्रह्मचारिणी मैया की पूजा करने के पश्चात माता के कवच, स्तोत्र एवं मंत्र का पाठ तथा जाप अवश्य करना चाहिए।




या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।

मस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।




3. माँ चंद्रघंटा :- नवरात्रि के तृतीय दिन माँ दुर्गा के तृतीय रूप चंद्रघंटा देवी के वंदन, पूजन तथा स्तवन करने का विधान है। देवी मैया के मस्तक पर घंटे के आकार का अर्ध चंदंमा विराजमान है इसीलिये मैया का नाम चंद्रघंटा पड़ा। 



देवी माँ के दस हाथ माने गए हैं तथा ये खड्ग आदि विभिन्न अस्त्र और शस्त्र से सुसज्जित हैं। ऐसा माना जाता है कि देवी के इस रूप की पूजा करने से मन को अलौकिक शांति प्राप्त होती है तथा इससे न केवल इस लोक में अपितु परलोक में भी परम कल्याण की प्राप्ति होती है।



माँ चंद्रघंटा देवी की पूजा अर्चना के लिये निम्न मंत्र हैं 



पिंडजप्रवरारूढ़ा,चंडकोपास्त्रकैर्युता।

प्रसादं तनुते मह्यं,चंद्रघंटेति विश्रुता।।





4. माँ कुष्मांडा :- माता दुर्गा अपने चतुर्थ स्वरूप में माँ कूष्माण्डा के नाम से जानी जाती हैं, नवरात्र के चतुर्थ दिन में आयु, यश, बल व ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली माँ भगवती कूष्माण्डा की साधना एवं पूजा  करी जाती है।



अपनी मंद हंसी से ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें माँ कूष्माण्डा देवी के नाम से पूजा जाता है।



जब सृष्टि का अस्तित्व भी नहीं था, चारों दिशाओं में सिर्फ़ घोर अंधकार ही अंधकार विद्यमान था तब माँ कुष्मांडा देवी ने ही अपने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना करी थी. इसलिए माँ को ही सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति मानी जाता हैं, इनके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था ही नहीं. इनकी आठ भुजाएं हैं. अत: देवी मैया के अष्टभुजा के नाम से विख्यात हैं, माँ का वाहन सिंह है।



इनके सातों हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष बाण, कमल, पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं. आठ वें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है ।






5. माँ स्कंदमाता :- माँ स्कंदमाता की पूजा नवरात्रि के पाँचवे दिन होती है,  मान्यता है कि माता स्कंदमाता भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं तथा इन्हें मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता के रूप में पूजा जाता है।




माँ स्कंदमाता का स्वरुप मन को मोह लेने वाला होता है। इनकी चार भुजाएँ होती हैं, जिससे वो दो हाथों में कमल का फूल थामे दिखती हैं। एक हाथ में स्कंदजी बालरूप में बैठे होते हैं और दूसरे से माता तीर - कमान को संभाले दिखती हैं। माता हमेशा कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए उन्हें पद्मासना देवी के नाम से भी पूजा जाता है,  शेर पर सवार होकर माता दुर्गा अपने पांचवें स्वरुप स्कन्दमाता के रुप में भक्तजनों के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहती हैं।




6. माँ कात्यायिनी :- माँ कात्यायिनी महर्षि कात्यायन के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्त सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी तक तीन दिन इन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर नामक महाअसुर का वध किया था।




माता कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। वासुदेव श्री कृष्ण भगवान को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालिन्दी यमुना के तट पर की थी। ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।






माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएँ हैं। माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में एवं नीचे वाला वर मुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार तथा नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है।





7. माँ कालरात्रि :- माता कालरात्रि की सवारी गर्धव है, मा़ँ के ये रूप दुष्टों का संहार करने वाला है। माँ कालरात्रि ने मधु - कैटभ तथा शुंभ एवं निशुंभ जैसे दानवों का वध किया था।  सप्तमी के दिन माँ कालरात्रि की पूजा विधि - विधान से करने पर सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।





8. माता महागौरी :- माँ महागौरी का ऊपरी दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है एवं  निचले हाथ में त्रिशूल है। ऊपर वाले बाएं हाथ में डमरू जबकि नीचे वाले हाथ शांत मुद्रा में है।



प्रसाद के रुप में माता महागौरी को अष्टमी तिथि के दिन  नारियल या नारियल से बनी चीजों का प्रसाद लगाया जाता है।






9. माँ सिद्धिदात्री :- मार्कण्डेय पुराण के अनुसार 1. अणिमा 2. महिमा 3. गरिमा 4. लघिमा 5. प्राप्ति 6. प्राकाम्य 7. ईशित्व तथा 8. वशित्व ये आठ  प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण जन्म के समय में यह संख्या 18 बताई गई है। जिनके नाम इस प्रकार हैं -


माँ सिद्धिदात्री अपने भक्तों तथा साधकों को उनकी तपस्या पूर्ण होने पर ये सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करती हैं।



देवीमहापुराण के अनुसार भगवान शिव ने देवी सिद्धिदात्री की कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था।



माँ सिद्धिदात्री की चार भुजाए सुशोभित हो रही हैं। माता का वाहन सिंह है। तथा ये कमल के पुष्प पर भी आसीन होती हैं। माता की दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प है।




देवी सिद्धिदात्री की अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी रूप में परिवर्तित हुआ था। इसी कारण वे लोक में 'अर्द्धनारीश्वर' नाम से प्रसिद्ध हुए।






जो भी मनुष्य भगवान में विश्वास करते हैं उन्हें माँ सिद्धिदात्री की  पूजा एवं ध्यान अवश्य करना चाहिए।

माता की आराधना की ओर अग्रसर हो। प्राणी मात्र माँ भगवती की कृपा से अनंत दुख रूप संसार से मुक्ति पाकर विश्व के समस्त सुखों का भोग करता हुआ मोक्ष को प्राप्त कर जाता है।









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