Sahitya Samhita

Sahitya Samhita Journal ISSN 2454-2695

Ticker

6/recent/ticker-posts

नारी चेतनाः अनसुलझी पहेली Women's Consciousness: Unsolved Puzzle

    डॉ. पुष्पा सिंह

                                           एसोसिएट प्रोफेसर

                                      मार्घेरिटा महाविद्यालय, असम

                                                         


                                                                                        

शोध सार- स्त्री अस्मिता के केन्द्र में ‘अस्मिता’ केन्द्रीय धुरी है। जिसमें तथाकथित आधुनिक समाज में हाशिए पर पड़ी स्त्री को बहस के केन्द्र में ला दिया है। पितृसत्ता शताब्दियों से चली आ रही ऐसी व्यवस्था है, जिसमें स्त्रियों को पुरुष के अधीन बताया गया है। वस्तुतः स्त्री का संघर्ष आज से नहीं सम्पूर्ण अतीत से है।

नारी शोषण की समस्या विश्व में कमोबेश एक जैसी है, जिसके कारण विश्व के  अनेक हिस्सों में इस शोषण के विरुदध आन्दोलन चलाए जा रहे हैं। भारत में भी इस आन्दोलन के प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

यह शोध-पत्र वर्तमान भारतीय समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का एक दस्तावेज प्रस्तु करता है। जिसमें यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि अशिक्षित महिलाओं को यदि छोड़ भी दें तो देखते हैं कि शिक्षित स्त्रियाँ भी समाज, परिवार में कहीं-न-कहीं शोषण की शिकार हैं। समाज में स्त्रियों को हर कदम पर दकियानूसी, रूढीवादी, पितृसत्तामक परम्पराओं के दायरे में रख कर देखा जाता है।

इस शोध-पत्र में विधवा पुनर्विवाह के साथ-साथ स्त्रियों पर हो रहे घरेलु अत्याचार के स्वरूप के परतों को खोलने का प्रयास करता है। मेरी दृष्टि में जागरूक और सबलता पाकर स्त्री किसी भी प्रकार के शोषण से मुक्त हो सकती है। यदि स्त्रियाँ जागरुक होगीं, तो वे शोषण और अन्याय का विरोध अवश्य करेंगी।

बीज-शब्द- त्रिया चरित्र, संवेदन शून्यता, कोख, पतोहू, हाड़-मांस, तमाशबीन, वसंत, दो मन, छलना।            

1.

महिला सशक्तिकरण, स्त्री-विमर्श, नारी-मुक्ति जैसी आवाजें उस समाज में बेबुनियाद है जहाँ आज भी ऐसी स्त्रियाँ हैं- “जो स्त्रियों की परिभाषाओं से वंचित संवेदन-शून्य है।1 जहाँ आज भी नारी स्व की खोज में छटपटा रही है। वर्तमान में पुरुष के कदम से कदम मिला कर चलने वाली नारी अथवा घर-बाहर एक करने वाली नारी ‘मेरा अस्तित्व क्या है’ अथवा ‘क्या आज भी मैं देह मात्र हूँ’ जैसे प्रश्नों को अपने हृदयरूपी गह्वर में छिपाए दौड़ रही है। उसकी संवेदना को तिरिया चरित्तर (त्रिया चरित्र) के नाम से हवा में फूंक मार कर उड़ा देने वाला समाज जब नारी मुक्ति तथा लैंगिक समानता की बात करता है, तो मीठी हंसी की फुहार छूट पड़ती है। कहावत है कि तिरिया चरित्तर दइबो न जाने- ऊपर वाले ने स्त्री की रचना करते समय बड़ी सूझबूझ से उसके भीतर अथाह संवेदना भर दी। अचूक साहस और शक्ति दे दी, ताकि इस संवेदनहीन पुरुषतांत्रिक समाज में कभी हंस कर, कभी रो कर, कभी गिरगिरा कर अपने को स्थापित कर सके। उसका विषम परिस्थितियों में भी हंसना, खिलखिलाना, रोना तिरिया चरित्तर बन गया। सागर की गहराई को नापने वाला ही यह बता सकता है कि शान्त सागर की कोख में अथाह मोती है, स्त्री की कोख कहीं उससे कम नहीं है। वह पुरुष द्वारा विस्थापित बीज को नौ महीने अपनी कोख में रख कर अपनी खून से सिंचती है और फिर अथाह पीड़ा को सहते हुए उसी पुरुष के सुपुर्द कर देती है कि ‘लो तुमने हमें बीज दिया हमने शिशु के रूप में एक जीवन का उपहार दिया।’ स्त्री ऐसी ही है, जिसने धरती की तरह केवल और केवल देना जाना है। इसलिए तो कोख से बाहर आने के बाद भी उस जीव को अपनी छाती से लगा कर अमृत पान कराती है। अब प्रश्न उठता है, जो अपने विशाल हृदय में अमृत लेकर घूमती है, वही सिसक-सिसक कर विष क पान करती है। क्यों?

स्त्री को यह कहने वाला पुरुष की तुम मेरी जीवन हो। मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। फिर उस ‘जीवन’ के व्यक्कतित्व को निखरते, उसकी प्रतिस्पर्धा को उड़ान भरते देख पुरुष विचलित क्यों हो उठता है? उसकी सत्ता डगमगाने की भय से वह अपने ‘जीवन’ के पर को ही काटने पर उतारु हो जाता है। यह प्यार है या छलावा?

वह बाहर रहकर भी घर की सोचती है। उसके दो मन है। एक कर्मस्थली पर उसके साथ रहती है और एक घर में टंगी रहती है, जिसे उसे पुनः बाहर से घर जाकर समेटना है। वह थकती नहीं क्योंकि यह शब्द उसके जीवन के कोश में नहीं है। घर में पिसती, रोती महिलाएँ बाहर मीठे मुस्कान के साथ निकलती हैं, वह इसलिए कि उसकी होठों पर पसरी उदासी को कहीं दुनिया न जान जाए। क्योंकि घर की मान, मर्यादा, इज्जत उसी के नाजुक कंधों पर लाद दी गई है। जिसे वह लात-जूतों को सहकर, गाली- गलौज को पचाकर अपने रिश्ते की डोर को बांधे रखने की कोशिश करती है। घर की मान-मर्यादा, वंश-परम्परा आदि से उसके कंधों को इतना बोझिल बना दिया गया वह मुसल से कूटे जाने पर भी ओखल में ही कुरबुड़ाती रहती है।

2. 

आखिर अपना सबकुछ न्यौछावर करने वाली स्त्री की संवेदना पुरुष को क्यों नहीं स्पर्श करती? या यूँ कहे कि स्त्री की संवेदना का भान होकर भी वह अपने पुरुषत्व का मिथ्या अभिमान अपने चेहरे पर सजाए रखता है। यह कैसा पौरुष है जो स्त्री की संवेदनीओं से विमुख, पुरुष होने का अथवा मानव होने का दावा करता है। जिस स्त्री की कोख ने पुरुष रूपी जीव को जन्म दिया, उसका लालन-पालन किया, उस जीव को स्त्री की पीड़ा का अनुभव क्यों नहीं होता। वह क्यों संवेदन-शून्य हो स्त्री के खिलाफ होने वाली घृणित से घृणित घटनाओं को अंजाम देने वाला हैवान बन जाता है।   

वर्तमान समय में जगह-जगह यह अवाजें उठने लगीं हैं कि कल की स्त्री से आज की स्त्री का जीवन बेहतर है। वह आर्थिक दृष्टि से सबल सशक्त महिला के रूप में पुरुष शासित समाज में अपना पांव जमा रही है या जमाने के लिए आतुर है। लेकिन उसकी आतुरता कहीं न कहीं गडमगड हो जाती है। तो क्या, ऐसे में मंच से उठतीं महिला मुक्ति या वर्तमान में महिला सशक्तिकरण की अवाजें सतही प्रतीत नहीं होती। महिला सशक्तिकरण की लड़ाई तबतक सफल नहीं होगी, जबतक कि  नगरीय शयन कक्ष में पुरुष के बलिष्ठ भुजाओं में कसमसाती महिला से लेकर गाँव की झोपरपट्टियों में दमघोंटू चीखों को घोटती महिला ‘वस्तु’ से ‘व्यक्ति’ नहीं बन जाती।       

नारी को वस्तु के रूप में प्रयोग करने का अधिकार पुरुषों को कब और कहाँ से प्राप्त हुआ?

हर युग में स्त्री छलना बनी रही। तभी तो जीती-जागती द्रोपदी को भी वस्तु तुल्य समझकर, उसकी चेतना से अंजान पुरूषतांत्रिक समाज ने दाव पर लगा दिया, जो वर्तमान में भी किसी-न-किसी रूप में जारी है। बकौल मैत्रेयी पुष्पा के शब्दों में- ‘मेरा मन जिद्दी है श्रीधर। कहता है, जिस मर्द के साथ मेरे पिता ने विदा कर दिया, उस मालिक से वापिस माँग ले अपनी देह। जीती-जागती पाँच इन्द्रियों के संग तो जानवर बेचे जाते हैं। उन्हीं का रस्सा पकड़ाया जाता है दूसरे के हाथ।’2 अस्तु।

रति क्रीड़ा में निमग्न नर क्रौंच के वध के उपरान्त मादा क्रौंच के वियोग को देख कर वाल्मीकि का हृदय इतना द्रवित हुआ कि उनके मुख से अचानक श्लोक फूट पड़ा-

                  मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शास्वती समा।

                  यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥ 3

करुणा से काव्य का उदय हुआ और स्त्रियों के दर्द से अनगिनत कहानियों की पटभूमि बनी। इन कहानियों के बीच एक प्रश्न सदैव अधूरा रह जाता है कि नारी किस रस्सा से मुक्ति चाहती है? रूढ परम्पराओं से या पितृसत्तात्मक समाज से? क्या अकेले पुरुष मात्र से यह सृष्टि सम्भव है? नर और नारी का तो अंगांगि संबंध है, फिर यह द्वंद क्यों? जिस दिन स्त्री अपनी कुक्षि को समेट लेगी उस दिन शनैः शनैः सृष्टि का अन्त हो जाएगा। तब प्रश्न उठता है क्या स्त्री मात्र देह है अथवा वंशवृद्धि की साधन? तो आईए समाज रूपी आईने से धूल की परत साफ करते हुए, स्त्री की संवेदनाओं को कहानी के रूप में काली स्याही से लिखते हैं, यह सोच कर कि शादय यह स्याह कभी तो सुफेद होगा।

3.

वैसे तो नारी की स्थिति यत्र-तत्र-सर्वत्र एक जैसी है। फिर भी ग्रामीण अंचलों में यह स्थिति और भी दुस्सह है। ग्रामीण परम्पराओं के भीतर ‘स्त्री’ विषयक सोच जिस रूप में रूपायित होती रहती है और उस समाज में उसकी स्वायत्ता कितनी है, इसकी छानबीन की चाह मुझे उस डगर ले गई जहाँ घुटनों के ऊपर साड़ी पहनी नारी धान-रोपनी में मशगूल अपना गला फार रही थी, तो कहीं वैधव्य की अभिशाप झेलती नारी अपने भीतर के वसंत पर पतझड़ लाने की कशमकश में मानसिक असंतुलन को झेल रही थी। उनके बीच जाकर यह अनुभव हुआ कि उनकी बातों में घुल-मिल जाना और फिर उनके अन्तर्मन में चल रहे अन्तर्द्वंद्व को बाहर निकालना एक जटिल कार्य है।     

गाँव के बाहर खेत में काम करती कुछ महिलाओं को देख कर उनसे बात करने की इच्छा हुई। हम अपनी कार एक वृक्ष के नीचे खड़ा कर दिए, यह सोच कर की आगे का रास्ता पैदल तय की जाएगी। पति देव कार से उतरे अवश्य लेकिन वे मेरे साथ खेत की ओर नहीं गए। मैं अकेली उन महिलाओं के पास गई जो धान रोप रही थीं। पहुँचते ही पूछी, ‘का होता…रोपनी होता का…?’

पांव कीचड़ में दबा हुआ, साड़ी घुटनों तक उठी हुई। एक हांथ में धान का पौधा लिए उनकी नज़र मेरी ओर उठ गई। उस क्षण उनके सौन्दर्य की छवि आज भी मुझे पुलकित करती हैं। उनमें से एक महिला शर्माते हुए बोली, ‘हाँ बहिन जी धान रोपाता…।’ 

मैं धान रोपती महिलाओं के साथ दो-तीन फोटो लेकर वहाँ से विदा ली। कुछ महिलाएँ पगडंडियों पर निफिक्र कदम रखते चल रही थी। मैं भी उनके साथ हो ली और उन महिलाओं से बातचीत करती आगे बढने लगी। तभी कुछ शोर-शराबा सुनाई पड़ा, मैं स्तब्द रह गई । एक पुरुष जो कर्ण भेदी गंदी-भद्दी गालियों की बौछार कर रहा था। साथ चलती एक महिला से पूछी, ‘मामाला क्या है? उसने चट जबाब दिया- ‘का बताई बहिन जी, इ तो रोज के खेल ह। रंडी है साली…।‘

मैं आवाक रह गई। स्त्री होकर दूसरी स्त्री के लिए इतने घिन्नौनें शब्द का प्रयोग। हमारी लड़ाई किससे है, आततायी पुरुष समाज से या रुढ मानसिकता से परिपूर्ण स्वयं नारी से।  सचमुच स्त्री मुक्ति का आन्दोलन तबतक सफल नहीं हो सकता जबतक स्त्रियाँ संगठित हो, स्त्री की परिभाषा को सबल नहीं कर देती।

कुछ बोली नहीं, आगे बढी। पहुँच कर जो दृश्य देखी, मेरा रोम-रोम सिहर उठा। सोचने लगी- नारी तू मर्दन की वस्तु नहीं। हाड़-मांस की जीव है। तेरी शक्ति तुझमें है। कुचल डाल उन उँगलियों को जो तेरी गेंसुओं से निर्मम खेलने को आतुर है।  मनुष्यों के भीड़ के बीच एक पुरुष स्त्री पर लात, हाथ, गाली का बौछार करते हुए अपने पुरुषत्व का प्रदर्शन कर रहा था और सब तमाशबीन बने हुए बूत खड़े थे। भीड़ में एक-आध को छोड़कर एक भी ऐसा इंसान नहीं था जो उस स्त्री की रक्षा कर सके। मैंने एक भले मानस से पूछा, ‘क्यों पीट रहा है?’ उसने जबाब दिया- ‘बदचलन है साली….।‘ तभी दूसरी ओर से आवाज आई, ‘मैं होता तो काट कर फेंक देता।’

समझ गई मामला गंभीर है, इस स्त्री ने कोई बहुत बड़ा दुष्कर्म किया है। आगे बढी। जब उस मनुष्य को देखी, वह मनुष्य मुझे एक ऐसा दानव लगा जो स्त्री के गेसुओं को पूरी शक्ति से टानते हुए अपने मनुष्यता को पूर्ण रूप से ख़ारिज कर रहा था। खैर! उस दानव से वह अबला अपने परित्राण की गुहार नहीं कर रही थी, वरन् वह पागलों की तरह चिल्लाए जा रही थी- ‘काम के ना काज के दुश्मन अनाज के…मार केतना मरबे…. दिन भर चुल्ही में बइठबे….. आ रात में……. कु्त्ता कही के।’ यह भयानक दृश्य मुझे विचलित कर गया। मन ही मन बुदबुदाइ- “सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ जीव, मानव! तुम दानव कब बन गए। मानव बने रहो सिर्फ मानव।”

4.   

एक अभिजात घर। उस घटना स्थल से बाहर निकल हम अपने रिश्तेदार के घर जाने के लिए आगे बढे। वहाँ पहुँचने के बाद पड़ोसी से ज्ञात हुआ कि वे लोग अभी घर में नहीं हैं, घंटे भर में आएंगे। अब वहाँ से लौट कर आने के अलावा हमारे पास दूसरा उपाय नहीं था। लेकिन पड़ोसी नेक इंसान थे। हमें चाय-पानी के लिए अपने घर में न्यौता दे दिए। मेरे पति जाना उचित नहीं समझे। लेकिन पड़ोसी जिद करने लगे, तब पति बोले कि तुम जाओ। मैं कुछ लोगों से मिल कर आता हूँ। तब क्या था, मैं उस सज्जन व्यक्ति के पीछे-पीछे चलते हुए एक आलीशान महल में उपस्थित हुई। चारों तरफ नज़र दौड़ाई, हर वस्तु सलिके से जगह पर रखी हुई थी। रंग-रोगन ऐसा कि दीवारों पर एक दाग तक नहीं था। उसी वक्त एक महिला का आगमन हुआ। उनके चेहरे पर पड़ी हल्की लकीरें यह बयां कर रही थी कि वे इस घर की कर्ता-धर्ता हैं। मैं दोनों हांथ जोड़ते हुए नमस्ते की। वे भी बड़े प्रेम से नमस्ते का जबाब देते हुए बैठने का इशारा की। हमारे बीच बाते होने लगी। बातों ही बातों में उस घटना का ज़िक्र छेड़ दी जो अभी-अभी देख-सुन कर आई थी। सुनते ही उन्होंने बड़े अनमने ढंग से बताया कि निम्नवर्ग की स्त्रियों की यही दशा है। घर में मर्द कुछ बोले नहीं की उनकी स्त्रियाँ चौराहे पर आकर रंडीपन करती हैं। मैंने कहा- ‘मर्द की भी गलती होगी, तभी….।’ वे तपाक से बोल पड़ी- ‘मर्द तो मर्द होता हैं… मर्द कुछ बोल दे तो क्या स्त्री उसके सर चढ कर बोलेगी।’ बाबूजी भी माता जी के विचारों से सहमत हुए, बोले- ‘महिलाओं का शिक्षित होना ही सर दर्द बन गया है।’

समझ गई कि इनकी कोई लड़की नहीं है। बहू सर को पल्लू से ढके हमारे बगल में खड़ी थी। माता जी से पूछी ये आप की पतोहू है। उन्होंने हाँ में जबाब दिया। जब पूछी कि बहू पढी-लिखी है कि नहीं। मेरे इस प्रश्न से वे कशमकश में पर गईं। धीरे से बोलीं- ‘एम. ए. की है।’ लेकिन उसके साथ उन्होंने यह भी जोड़ा कि ‘शिक्षित होकर भी हमारी बहू बहुत संस्कारी है।’

उनकी बात को सुनकर मुझे यह प्रतीत हुआ की शायद उनकी नज़र में शिक्षित महिलाएँ  संस्कारी नहीं होती। मैं मुस्कुरा उठी। बहुत सुशील है आपकी बहू। उसकी ओर रूख करके पूछी- ‘एम. ए. किस विषय से की हैं। उसने कहा- ‘समाजशास्त्र से’। बैठने को इशारा किया, लेकिन सास-ससुर की उपस्थिति में बैठना परम्परा के खिलाफ था, वह खड़ी रही। तभी बाहर से किसी की आवाज आई, ‘ये दुलहिन कहाँ बानी, चउबे जी के घर से बुलाहटा बा, अब्बे चलेके पड़ी।’

आवाज सुनते ही माता जी बाबूजी के साथ बाहर निकली और तुरत भीतर आकर यह कहते हुए विदा ली कि ‘आप चाय-पानी लिजिए, हम अभी आते हैं।’ अब उस बैठक में हम दो जन ही थे, मैं और उस घर की बहू। क्षण भर के लिए उस बैठक में मौनता छा गई। मैं चुप्पी को तोड़ते हुए बोली- ‘आपका परिवार खुशहाल और सम्पन्न है।  

‘जी।’

आपके पति क्या करते हैं?’

अचानक उसके चेहरे पर उदासी छा गई। मैं बोली- ‘क्या हुआ?’ आपके पति….!

आवेगिक हो उठी, ‘पति या पुरुष……..?’

‘मतलब…!’ मैंने सोचा नहीं था कि इस तरह का जबाब सुनने को मिलेगा।      

वह आगे बोली, ‘….मेरा पति, मेरे लिए पति नहीं महज एक पुरुष मात्र है।’

‘पुरुष ही तो पति होता है। फिर आपके अनुसार पुरुष और पति में क्या अंतर है’?

“सत्य माने तो मेरे लिए पुरुष और पति में कोई अन्तर नहीं है। दीदी आप ‘आवां’ की वह पंक्ति याद कीजिए, जहां चित्रा जी लिखती हैं “पति क्या होता है, आधिकारिक बलात्कारी ! अथोराइज्ड……..!” 4

मैं बीच में उसे टोकी ‘परन्तु सामाजिक स्तर पर ‘पुरुष’ स्त्रियों पर दमन का एक पर्याय है और ‘पति’ पत्नी का रक्षाकवच, हमसफर । पति के अलावा कोई अन्य पुरुष उसके सुख-दुख का साथी बन सकता है? नहीं न। इसलिए तो विवाह को हमारे देश व समाज की महत्वपूर्ण संस्था मानी गई है।’

बड़ै धैर्य से सुनने के बाद वह हँसते हुए बोली, ‘ताकि पति नामक मालिक की वह आश्रिता बन सके। वह कहे उठ तो उठो, वह कहे बैठ तो बैठो। यदि थोड़ी भी चूक हुई तो सीधे उसके घर वालों के संस्कार पर प्रश्न खड़े कर दिए जाते हैं।’   

यह सत्य है कि आर्थिक स्वावलम्बन के कारण औरतों में जागृति आई है। कुछ स्त्रियाँ विश्व पटल पर अपनी पहचान बनाने में सफल हुई हैं, तब भी अधिसंख्यक स्त्रियाँ नैतिकता की बंदिशों में बंधी है।

‘दीदी आपको सासु माँ ने बताया कि निम्मवर्ग की महिलाएँ रं…. होती है क्योंकि वे पुरुष के खिलाफ आवाज उठाने की सामर्थ्य रखती हैं और उच्चघर की महिलाएँ जो रूढिगत पारम्परिक चारदीवारियों में कैद जड़ताओं, संकीर्णताओं और पुरुषों के सामन्ती तानाशाही को झेलती है, उसे कायर क्यों नहीं कहती, जबकि वे स्वयं स्त्री हैं। दीदी निम्नवर्ग हो या उच्चवर्ग, आप हर घर को खंगाल लें। मुश्किल से एक दो घर को छोड़ कर, हर घर में एक निःशब्द रुदन है। एक ही किस्सा है कि औरत की भीगी आँखें ही उसे औरत बनाती है। माँ को कई बार कोने में सिसकते देखी थी। उनके रोने का कारण कभी नहीं पूछी। लेकिन आज समझ सकती हूँ। जो स्वयं भुक्तभोगी थी, उसने मुझे बताया कि पति परमेश्वर होता है। हंसी आती है ‘परमेश्वर’ शब्द पर। क्या परमेश्वर ऐसे होते हैं? पति परमेश्वर…..!

मैंने कहा यदि पति परमेश्वर हैं तो पत्नी भी तो देवी है। ‘वह खिलखिलाने लगी।’

वाह दीदी! आपने बड़ी अच्छी बात कही। पतियों ने तो अपना परमेश्वर का आसन अडिग रखा है परन्तु पत्नियाँ……? पति परमेश्वर हैं इसलिए पूज्य हैं। पत्नी भी देवी तुल्य है उसकी भी पूजा होनी चाहिए। मनुस्मृति में लिखा है- जत नारी पुज्यन्ते/रमन्ते तत्र देवता।5 यह पंक्ति सब ने भूला दिया लेकिन यह याद रहा कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी/ सकल तारणा के अधिकारी।” 6

आज वह अपने हृदय का सारा उद्गार खोल देना चाहती थी, बोले जा रही थी, ‘पत्नियों को देवी बनाकर पतियों ने उसे हमेशा छला है। चाहे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ही क्यों न हो।’

मैंने टोका। अरे यह क्या बोल रही हो। राम हमारे भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम।

‘हाँ दीदी इसे मैं भी स्वीकार्य करती हूँ। लेकिन प्रजा का हित उनके लिए प्रथम रहा और पत्नी सीता? विपरित परिस्थिति में साथ देने वाली सीता को गर्भावस्था में किसी अन्य पुरुष के कहने पर क्यों त्याग दिए? वनवास राम को मिला था सीता को नहीं। सीता ने तो अपने धर्म का पालन किया, लेकिन क्या राम ने अपने पति धर्म का पालन किया? इसलिए मेरे अनुसार राम पति नहीं पुरुष हैं। एक पुरुष ने लांछन लगाया और दूसरे ने त्याग दिया।’

यह तुम्हारी गलत धारणा है। तुमने खुद स्वीकारा कि श्रीराम ने अपने राजधर्म का पालन किया।

‘हाँ दीदी वही तो मैं जानना चाहती हूँ कि पत्नी की संवेदना को राम क्यों नहीं समझे?’.

तुम यह कैसे भूल गई कि अपनी पत्नी की खोज में राम दर-दर भटकते रहे।

‘कुछ नहीं भूली हूँ दीदी, लेकिन पाकर त्याग देना वो भी अग्नि परीक्षा के बाद। सीता ने तो नहीं कहा कि राम की भी अग्नि परीक्षा होनी चाहिए। माता सीता ने पति की आज्ञा का पालन करते हुए स्त्री धर्म की रक्षा की। सत्य मानें दीदी सीता का धरती समागम, मैं रामायण का सुखद अन्त मानती हूँ। क्या धर्म केवल स्त्रियों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं?”

अब द्रोपदी को ही लीजिए, पाँच शूरवीरों की पत्नी। एक तो पाँचों ने यह गलती की कि अपनी पत्नी को वस्तु समझा और उसे दाव पर लगा दिया। दूसरी गलती यह कि उन्हीं के आँखों के सामने उनकी पत्नी का अन्य पुरुष द्वारा चीरहरण किया गया और वे पाँचो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। तब उन पतियों का धर्म कहाँ था? अब सोचो दीदी पाँच पतियों के रहते द्रोपदी श्री कृष्ण (किसी अन्य पुरुष) से रक्षा की गुहार की। फिर वहाँ पति की भूमिका क्या रही?’

सदियों से स्त्री छली जा रही है और तबतक छली जाएगी जबतक समाजव्यवस्था अथवा पुरुष की संकीर्ण मानसिकता में परिवर्तन नहीं आ जाती।  कानुनन स्त्रियों को समानाधिकार प्राप्त है अवश्य। किन्तु, व्यवहारिक धरातल पर हमें समानाधिकार कभी प्राप्त नहीं हुआ। विशेषाधिकार का सुख पुरुष भोगता रहा।

उसकी बातें सुनने के बाद यह तो समझ चुकि थी कि यह महिला विकट आन्तरिक द्वन्द्व से गुजर रही है। बोली, मुझे अफसोस है कि अभिजात घरानों की चारदीवारियों में इतनी घुटन है जो इन्हीं चारदीवारियों के मध्य घुट कर दफन हो जाती हैं। खैर! तुम्हारे बच्चे…..?

‘बच्चे नहीं हैं…। यही तो बखेड़ा है। हमारी शादी के छहः साल हुए। एक लड़की हुई थी, लेकिन महीने भर के भीतर ही वह इस निर्मम धरती को छोड़कर चली गई।’

वह सिसकने लगी। मैं कसकर उसके हाथों को दबाई। उसने अपने आपको संभाला और आंसुओं पर विराम लगाते हुए बोली- ‘अच्छा हुआ वह चली गई, वर्ना इस पुरुष शासित समाज में एक और स्त्री, पुरुष-दमन की शिकार होती।’ इलाज चल रहा है लेकिन अभी तक कुछ….। डॉक्टर इनको भी चेकअप करने को कहते हैं। ये  झल्ला उठते हैं, क्योंकि इनकी मर्दानगी को ठेस पहुँचती है। बार-बार घर-परिवार के लोग मुझे दोषी ठहरातें हैं। मुझे बांझ होने की संज्ञा दी गई है। दूसरी शादी की धमकी दी जाती है और वे मूक दर्शक बने तमाशा देखते रहते हैं। मेरा हृदय चीघार उठता है लेकिन इसका उनपर कोई असर नहीं पड़ता। मेरी तकलीफ, मेरी पीड़ा का अनुभव नहीं करते, कभी-कभी तो हाथापाई पर उतर आते हैं । कुछ मांगो तो दंगा, कुछ बोलो तो दंगा, बोलिए क्या पति ऐसा होता है?

‘हाथापाई’, तुम इस अन्याय के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाती हो?’

‘करनी और कथनी में बहुत अन्तर है दीदी। आवाज ऊठाने का मतलब है परिवार का विघटन। इसलिए मैंने जीवन से समझौता कर लिया है। स्त्री को कुदरत ने बनाया ही है समझौता करने के लिए।

यह बोलने के बाद वह मौन हो गई। जैसे सारे हलाहल को वह गट्-गट् पी रही हो और पचाने की कोशिश कर रही हो।     

उस साध्वी को देख सोचने लगी, आखिर पुरुष की यह मानसिकता कब बदलेगी? कब तक अहिल्या की तरह दोषी न होते हुए भी पत्थर बनना पड़ेगा?”

परिस्थियाँ कब बदेलेगीं यह अज्ञात है। फिर भी एक दृढ विश्वास के साथ उससे बोली- ‘सब बदलेगा, बदल रहा है। स्त्रियाँ जिस सम्मान की हकदार है, उसे अवश्य प्राप्त होगा। पुरुष को चेतना ही होगा कि स्त्री कोई वस्तु नहीं, वरन हमारी तरह ही हार-मांस की जीव है, मनुष्य है।’

यह कहते हुए वहाँ से उठी और सब से विदा लेते हुए अपने रिश्तेदार के घर की ओर मुड़ी। माता जी को आते हुए देखी, उन्होंने बताया कि वे लोग अभी तक नहीं आए हैं। अब मैं क्या करती। पति को फोन की। वे कहीं बगल में ही थे, तुरत चले आए।

5.

लौटते वक्त एकबार फिर मेरी नज़र उस पीड़ित महिला के घर की ओर उठी। मन में महिला की हालत जानने की जिज्ञासा हुई। पति से यह बोलते हुए कि थोड़ी देर इस गाछ के नीचे बैठ कर मेरा इन्तजार कीजिए। पतिदेव बड़ी-बड़ी आँख करके मुझसे पूछे, ‘अब क्या हुआ?’

मुस्कुराते हुए बाली, ‘कुछ नहीं। बस उस महिला की खबर लेकर आती हूँ।’ यह कहते हुए मैं  उसके घर की ओर चल पड़ी। मन ही मन सोच रही थी उससे बात संभव होगी या नहीं। भाग्य ने साथ दिया वह औरत उसी जगह बेहाल बैठी मिली, जहां वह उत्पीड़न का शिकार हुई थी। धीरे-धीरे उसके पास गई और एक ईंट खींच कर उसके बगल में बैठ गई।

उसके रुखे-सुखे बाल पूरे बिखड़े हुए थे। साड़ी का पल्लू छाती से नीचे गिरा हुआ था। एकाध  ब्लाऊज की बटन खुले होने के कारण उसकी सुखी छाती भीतर से झांक रही थी। उसकी साड़ी के पल्लू को उठाकर उसके वदन पर रखते हुए पूछी- ‘कुछ बात पूछूं ?’

“वह फफक फफक कर रोने लगी। का पूछेंगी…..।”

बस यही कि तुम्हारा मरद तुम्हें क्यों पीट रहा था?’

सिसकते हुए बोली “ उ समझता है कि हम उसकी जागिर हैं। उ दिन भर चुल्ही में बइठा रहता है आउर हम एहर ओहर मजुरी कइके लाती हैं तो ससुरे का पेट भरती है। रोज दारु का पइसा चाहि नाही द त पिटता है गरियाता है। कहता है हम रण्… है, मरदन के साथ मटरगस्ती करती है।  कल घर आईके  देखी कि इ मुंह झउंसा दूसर मेहरारु के साथ सोया है और हमका गरियाता है कि हम रं… है त उ का है। कवन मेहरारु अपने मरद के दूसर मेहर के संगे सुतल देख के खुश होई। हमु झोटा तानी के ओका बाहर निकाली, ओही खातीर पागलाई के हमका पीट रहा था।”

तुम उससे क्यों नहीं कहती कि वो कुछ काम-धाम करे।

“… कुत्.. का औलाद है साला, भईंस है भईंस। एसे वियाह कइके हमार करम फूट गया।

उसी समय शायद हमारी आवाज सुनकर उसका पति बाहर निकला। उसको देख कर लग रहा था उसपर खून सवार है। मुझे देखकर थतमताया। मैं उठ खड़ी हुई। वह जाने को तैयार हुआ, मैंने रोका- ‘रुको तुमसे कुछ बात पूछनी है।’

उसने ताव में कहा- “हमरे पास टईम नहीं है।”

मैं थोड़ी सख्ती से बोली- ‘रुको वरना…।’ “का है पुछिए” …. पत्नी पर हाथ उठाते हो, यह कानुनन जुर्म, मैंने तुम्हें पीटते देखा है। यदि में थाने में रिपोर्ट कर दूँ तो जानते हो क्या होगा। आजीवन जेल में चक्की पीसते रहोगे।

वह डर गया, बोला- “का करे मेडम जी, बड़ी बदचलन है, दिनभर दूसरे मरदन के साथ हंसी-ठिठोली करती रहती है एकदम रं….।” चुप करो। तुम जो काम-धाम नहीं करते और बीवी के रहते दूसरी औरत के साथ कुकर्म करते हो, जानते हो इसका परिणाम। पत्नी को सम्मान देना सीखो और इंसान हो तो इंसान बनकर जीना सीखो, पशु मत बनो। तुम्हारा करतूत मैंने रिकॉड कर लिया है, मैं दूबारा आऊँगी, यदि मुझे पता चला कि तुमने अपनी पत्नी के साथ दुष्कर्म किया है तो तुम्हें हथकड़ी लगवाने में कोई कसर नहीं छोड़ूगी।

“वह डर गया, गिरगिराते हुए बोला- बहिन जी आप थाना में रपोट नाही कीजिएगा, अब ओका नाहीं मारेंगे।”

6.

शाम होने वाली थी। वहाँ से उठी और कुछ कदम ही आगे बढी थी कि एक औरत आकर बोली- ‘हमका आपसे कछु पूछना है।”

‘क्या?’

“इंहा नाही, बाहिर निकलिए तो पूछती हूँ।”

‘अब बोलो।’

“बहिन जी, का विधवा औरतन का कवनो इच्छा-अनिच्छा नाहीं होला? का ओके मन कवनो मरद खातिर नाहीं छटपटात होई ? ओके का खुल के हँसे-बोले के अधिकार नाही हउए ?”

‘मैं बहुत देर तक स्तब्द उसे देखती रही, फिर पूछी- तुम विधवा हो ?’

“हम नाही, हमार बहिन। तीन साल पहले ओका बियाह हुआ रहा, साल भर हुआ नहीं कि ओका मरद को कउन भूत पकड़ा कि उ धरती छोड़ कर चल गया। हमार छोट देवर ओपर डोरा डालता है। ओका अकेले में पकड़ के चुम्मा-चट्टी लेता। हम एक दिन देखी तो देवर को डाटी, उ चुप-चाप निकल गया। बहिन को भी डाटी त उ फफक-फफक के रोए लागी। सास का पता चला तो हमरा बहिन को गरियाने लगी। उ कहने लगी कि- तोर बहिन छउरा के अगे-पीछे देह उघार-उघार के देखाई आउर आँख मटकाइ त का उ साधु बनल रही……उ हिंजड़ा नाहीं हउए…….आपन बहिन के बोल कि आपन जवानी के पांख काट के फेंक देवे।”

‘मैं बोली कि तुम अपने बहिन की शादी अपने देवर से क्यों नहीं कर देती। का तुम्हारा देवर तुम्हारे बहिन से शादी करेगा ?

“कइसे बताई बहिन जी, हम जब ओका बियाह करे को कहती है तो उ हंस से निकल जाता है, सास से बोली त उ गरियाने लगी, कहती है- दुनिया में लड़कियन के अकाल पड़ी गइल हउए कि तोर रांड़ बहिन से आपन बेटा बियाहिब।’ आपे कुछ करिए नाहि त हमार बहिन के जिनगी बरबाद होइ जाई।

बहुत देर हो चुकि थी। पुनः दूसरे दिन आने का वायदा कर, आगे बढे। पति मुझे आते हुए बड़े गौर से देख रहे थे। आते ही बोले, ‘और कुछ बाकी है या चले।’ मुझे समझ नहीं आया कि यह व्यंग था या उकताहट। खैर हम पगडंडी से होकर वहाँ पहुँचे जहाँ हमारी कार खड़ी थी। सर भारी हो चुका था। तभी पति हंसते हुए बोले, ‘तुम तो समाज सेवी बन चुकी हो।’ मैं उनकी बातों को अनसुना करते हुए बोली, ‘क्या पति सचमुच मात्र पुरुष है, जिससे डरना चाहिए। उन्होंने कहा- पति-पत्नी से अच्छा दोस्त तुमने देखा है, जब सारी दूनिया साथ छोड़ देती है तब भी पति-पत्नी एक-दूसरे के सहारे जीवन काट लेते हैं।

“तो फिर…..?” मैं बाहर देखने लगी। मेरे आँखों के सामने  सफेद वस्त्र में लिपटी सुकोमल उस विधवा का दृश्य उपस्थित हुआ, जो आखों में पानी लिए मानों मुझसे बोल रही थी- दीदी मेरा क्या होगा ? क्या मेरे जीवन में कभी वसंत की शीतल बयार नहीं बहेगी ? यदि अंजाने मेरे अन्दर का वसंत हरित पर्व मना बैठा और अन्दर का उल्लास अंकुरित हो उठा तो क्या यह समाज मुझे जीने देगा? अनायास मेरी आँखों से पानी बह चला। बहते हुए आँसू इस सच्चाई पर हस्ताक्षर कर रहे थे कि केवल पुरुष ही नहीं, नारी भी नारी की दुश्मन है। कार अपनी रफ्तार से आगे बढ रही थी। रास्ते पीछे छूट रहे थे। बैठे-बैठे आँखे बंद कर ली। मानों मैं धरती से बात करने लगी- हे धरती! तुम भी स्त्री हो, हर तरह से तुम्हारा दोहन होता है, लेकिन मूक सब बर्दाश्त करती हो, किसके लिए, अपनो के लिए। हठात धरती मेरे समक्ष उपस्थित हो जाती है। ठीक कहा- मैं माँ (स्त्री) हूँ इसलिए सब बर्दास्त करती हूँ। लेकिन कब तक, जब दोहन की सीमा पार होती है, तो मैं अपने हृदय को संकुचित कर देती हूँ और नतीजा….?

      मैं सहम गई। पति ने पूछा क्या हुआ?

      कब तक दोहन होगा स्त्रियों का और नतीजा हृदय-संकुचन। जानते हैं हृदय संकुचन का अर्थ- परिवारिक विघटन। जहाँ हृदय नहीं वहाँ उच्श्रृंखलता का प्रवेश अनायास ही सम्भव है। इसलिए परिवर्तन जरुरी है। पुरुष को चेतना ही होगा कि ‘स्त्री की भावनाएँ, आकांक्षाएँ, सम्भावनाएँ तुमसे कही कम नहीं है। जिस दिन समाज से रुढ परम्पराओं का जाल कट जाएगा, जिस दिन पुरुष और नारी की सोच एक समानान्तर दिशा की ओर चल पड़ेगी, उस दिन से कोई भी युवती सफेद साड़ी में लिपटी वसंत की छटपटाहट को नहीं भोगेगी।’

 

संदर्भ सूची

1. चित्रा मुद्गल- आंवा, पृ.- 291

2. मैत्रेयी पुष्पा- चाक

3. वाल्मीकि कृत रामायण, द्वितीय सर्ग, श्लोक-15

4. चित्रा मुद्गल- आंवा, पृ.- 291

5. मनुस्मृति, अध्याय 3/56

6. तुलसीदास कृत रामचरित मानस, सुन्दरकाण्ड, प्रकाशित- श्री ठाकुर प्रसाद पुस्तक भण्डार, वाराणसी, पृ.-657