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Sahitya Samhita Journal ISSN 2454-2695

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वीरो के वीर शिरोमणि थे अद्भुत पराक्रमी महाराणा प्रताप


 ऋषभ चतुर्वेदी. दोस्तों आज हम बात कर  रहें है एक ऐसे पराक्रमी योद्धा के बारे में जिन्हें वीरों का वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप कहा जाता है । इनकी वीरता के किस्से पूरे देश भर में मशहूर हैं, देश का बच्चा - बच्चा इनके नाम से प्रेरणा लेता हैं आइए आज हम आपकों इस आलेख में विस्तार से बताते हैं इसके पीछे के कारण और इनकी वीरगाथा के बारे में 


राजस्थान में जन्मा यह मेवाड़ी सूर्य :- महाराणा प्रताप के जन्मस्थली के लिए  सामान्यत दो धारणाएँ प्रचलित है। पहली यह कि महाराणा प्रताप का जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि इनके पिता महाराणा उदयसिंह एवम माँ जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ के महल में ही हुआ था तथा दूसरी धारणा यह है कि उनका जन्म पाली के राजमहलों में हुआ था। जनमानस में वैसे तो विशेष रूप से यह प्रचलित है कि हिन्दी दिनांक या तिथि के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत 1597 को यह जन्में थे तथा अंग्रेजी महीनों अनुसार इनका जन्म 9 मई 1540 – 19 जनवरी 1597 को हुआ था, परंतु इस विषय पर अलग - अलग इतिहासकारों ने अपने - अपने मत रखें जो कि इस प्रकार है जैसे लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुम्भलगढ में ही हुआ था। जबकि इतिहासकार  विजय नाहर के अनुसार राजपूत समाज की परंपरा व महाराणा प्रताप की जन्म कुण्डली व कालगणना के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म पाली के राजमहलों में ही हुआ था, वही भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवत्त अधिकारी देवेंद्र सिंह शक्तावत की पुस्तक महाराणा प्रताप के प्रमुख सहयोगी के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म स्थान महाराव के गढ़ के अवशेष जूनि कचहरी पाली में विद्यमान है। वहीं  इतिहासकार मुहता नैणसी की पुस्तक ख्यात मारवाड़ रा परगना री विगत में भी स्पष्ट है "पाली के सुविख्यात ठाकुर अखेराज सोनगरा की कन्या जैवन्ताबाई ने वि. सं. 1597 जेष्ठ सुदी 3 रविवार को सूर्योदय से 47 घड़ी 13 पल गए एक ऐसे देदीप्यमान बालक को जन्म दिया था जिसका नाम प्रताप था। एवं इतिहासकार अर्जुन सिंह शेखावत के अनुसार महाराणा प्रताप की जन्मपत्रिका पुरानी दिनमान पद्धति से अर्धरात्रि 12/17 से 12/57 के मध्य जन्मसमय से बनी हुई थी। 5/51 पलमा पर बनी सूर्योदय 0/0 पर स्पष्ट सूर्य का मालूम होना जरूरी है इससे जन्मकाली इष्ट आ जाती है। यह कुंडली चित्तौड़ या मेवाड़ के किसी स्थान में हुई होती तो प्रातः स्पष्ट सूर्य का राशि अंश कला विक्ला अलग होती। पण्डित द्वारा स्थान कालगणना पुरानी पद्धति से बनी प्रातः सूर्योदय राशि कला विकला पाली के समान है।

पिता एवं माता के वंश :- महाराणा प्रताप का पूरा नाम महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया था, तथा इनके पिताजी जो महाराणा उदयसिंह के नाम से विख्यात थे कि कई रानिया थी जिनमें प्रमुख महारानी जयवंताबाई थी जो कि महाराणा प्रताप की माता थी। कुछ किवदन्तियों के अनुसार उदयसिंह की कुल 22 पत्नियां और 56 पुत्र और 22 पुत्रियां थी। उदयसिंह की दूसरी पत्नी का नाम सज्जा बाई सोलंकी था जिन्होंने शक्ति सिंह और विक्रम सिंह को जन्म दिया था जबकि जगमाल सिंह ,चांदकंवर और मांकनवर को जन्म धीरबाई भटियानी ने दिया था ,ये उदयसिंह की सबसे पसंदीदा पत्नी थी। इनके अलावा इनकी चौथी पत्नी रानी वीरबाई झाला थी जिन्होंने जेठ सिंह को जन्म दिया था।


अब यदि हम महाराणा प्रताप की माता जी के बारे में बात करे तो महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे भील अपने पुत्र को किका कहकर पुकारते है इसलिए भील महाराणा को कीका नाम से पुकारते थे। जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे। कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर के शक्तिशाली राठौड़ी राजा राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत मे सबसे शक्तिसम्पन्न थे। एवं जयवंता बाई के पिता एवम पाली के शाषक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था। इस कारण पाली तथा मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था और वीर राठौड़ो की  सेना के सामने अकबर की शक्ति बहुत कम थी, अतः जयवंता बाई को पाली भेजा दिया था। और इस प्रकार वि. सं. ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ था।

महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक :- महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था लेकिन पूर्ण विधि विधानस्वरूप नहीं हो पाया था, इस कारण महाराणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक पूर्ण विधि - विधान के साथ 1572 ई. में कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में किया गया था साथ ही वहाँ पर दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर के राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे जो कि महाराणा प्रताप की सैन्य तथा राजशक्ति को बल देने के प्रतीक स्वरूप थे।


महाराणा प्रताप का विवाह तथा परिवार :- राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियाँ की थी उनकी पत्नियों से उन्हें बहुत सी संतानें हुई थी जिनके नाम कुछ इस प्रकार है । महारानी अजबदे पंवार  से अमरसिंह और भगवानदास, अमरबाई राठौर से नत्था, शहमति बाई हाडा से पुरा, अलमदेबाई चौहान से जसवंत सिंह, रत्नावती बाई परमार से माल,गज,क्लिंगु तथा लखाबाई से रायभाना, जसोबाई चौहान से कल्याणदास, चंपाबाई जंथी से कल्ला, सनवालदास, दुर्जन सिंह और सोलनखिनीपुर बाई से साशा और गोपाल, फूलबाई राठौर से चंदा एवं शिखा तथा खीचर आशाबाई से हत्थी और राम सिंह उनकी संतानें थे ।

संपूर्ण जीवन ही रहा युद्धमय :-

वो सिसोदिया राजवंश के 54वें शासक कहलाते हैं महाराणा प्रताप को बचपन में ही ढाल तलवार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा क्योंकि उनके पिता महाराणा उदय सिंह उन्हें अपनी तरह ही कुशल योद्धा बनाना चाहते थे। बालक प्रताप ने कम उम्र में ही अपने अदम्य साहस का परिचय दे दिया था। धीरे धीरे समय बीतता गया। दिन महीनों में और महीने सालों में परिवर्तित होते गये। इसी बीच प्रताप अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण हो गये।


1567 में जब राजकुमार प्रताप को उत्तराधिकारी बनाया गया उस वक्त उनकी उम्र केवल 27 वर्ष थी और मुगल सेनाओं ने चित्तौड़गढ़ को चारों ओर से घेर लिया था। उस वक्त महाराणा उदय सिंह मुगलों से भिड़ने की बजाय चित्तौड़गढ़ छोड़कर परिवार सहित गोगुन्दा चले गये। वयस्क प्रताप सिंह फिर से चित्तौड़गढ़ जाकर मुगलों से सामना करना चाहते थे लेकिन उनके परिवार ने चित्तौड़गढ़ जाने से मना कर दिया।गोगुन्दा में रहते हुए महाराणा उदय सिंह और उसके विश्वासपात्रों ने मेवाड़ की अस्थायी सरकार बना ली थी।

1572 में प्रताप सिंह मेवाड़ के महाराणा बन गये थे लेकिन वो पिछले पांच सालों से चित्तौड़गढ़ कभी नहीं गये थे। उनका जन्म स्थान और चित्तौड़गढ़ का किला महाराणा प्रताप को पुकार रहा था। महाराणा प्रताप को अपने पिता के चित्तौड़गढ़ को पुन: देख बिना मौत हो जाने का बहुत अफ़सोस था। अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर तो कब्जा कर लिया था लेकिन मेवाड़ का राज अभी भी उससे दूर था। अकबर ने कई बार अपने हिंदुस्तान के जहापनाह बनने की चाह में कई दूतों को महाराणा प्रताप से संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए भेजा लेकिन हर बार राणा प्रताप ने शांति संधि करने की बात कही लेकिन मेवाड़ की प्रभुता उनके पास ही रहेगी। 1573 में संधि प्रस्तावों को ठुकराने के बाद अकबर ने मेवाड़ का बाहरी राज्यों से सम्पर्क तोड़ दिया और मेवाड़ के सहयोगी दलों को अलग थलग कर दिया जिसमें से कुछ महाराणा प्रताप के मित्र और रिश्तेदार थे। अकबर ने चित्तौड़गढ़ के सभी लोगों को प्रताप की सहायता करने से मना कर दिया था।

फिर एक दिन 1576 में हल्दीघाटी के भयानक  युद्ध में 500 वनवासी तथा भील लोगो एवं अपने 20,000 सैनिको को साथ लेकर राणा प्रताप ने आमेर सरदार राजा मानसिंह के 80,000 की सेना का सामना किया। हल्दीघाटी युद्ध में भील सरदार राणा पूंजा जी का योगदान भी अमर हो गया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया और महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए प्रार्थना की। शक्ति सिंह ने अपना प्रिय अश्व दे कर महाराणा प्रताप को बचाया था। इस महाभयानक युद्ध में महाराणा प्रताप के प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हो गई थी। हल्दीघाटी के युद्ध में तथा देवर और चप्पली की लड़ाई में प्रताप को सबसे बड़ा वीर राजपूत माना गया और उन्हें उनकी बहादुरी के लिए देवतुल्य माना जाने लगा था। मुगलों के सफल प्रतिरोध के बाद  उन्हें "मेवाड़ी राणा" जनमानस द्वारा माना गया।

यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17,000 लोग मारे गए थे| एवं मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर के सभी प्रयास विफल हुए। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिन्ताजनक होती चली गई तभी भामाशाह ने 24,000 सैनिकों के 12 साल तक गुजारे लायक अनुदान दिया, ऐसा करने पर उनका नाम भी महाराणा प्रताप के साथ सदैव के लिए अविस्मरणीय हो गया ।इस संकट के समय में महाराणा प्रताप के मंत्री भामाशाह और उनके भाई ताराचंद ने मुल्क मालवे से दण्ड के 25 लाख रूपए तथा 20 हजार स्वर्ण मुद्राएं उनको भेंट कर अपनी स्वामी भक्ति का परिचय दिया। इस धन से उन्होंने पुन: सेना जुटाकर ‘‘दिवेर'' को जीत लिया और ‘‘चांवड‘‘ पंहुचकर अपना सुरिक्षत मुकाम बनाया। मेवाड़ के बचे भाग पर फिर से महाराणा का ध्वज लहराने लगा। बांसवाडा और डूंगरपुर के शासकों को भी पराजित कर प्रताप ने अपने अधीन कर लिया। यह समाचार पाकर अकबर तिलमिला उठा और उसने पुन: शाहबाज खां को 15 दिसंबर 1578 को महाराणा को कुचलने के लिए शाही लवाजमें के साथ यह आदेश देते हुए भेजा कि यदि तुम प्रताप का दमन किए बिना वापिस लौटे, तो तुम्हारे सिर कलम कर दिए जाएंगे। शाही लवाजमें और कठोर आदेश के बावजूद शाहबाज खां प्रताप को नहीं पकड़ सका। तीसरी बार बादशाह ने 9 नवम्बर 1579 को शाहबाज खां को प्रताप को पकड़ने के लिए मेवाड़ भेजा, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। 


1580 में बादशाह अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया और उसे मेवाड़ विजय का अभियान सौंपा। अब्दुर्रहीम ने अपने परिवार को शेरगढ़ में छोड़कर राणा पर चढ़ाई कर दी। कुंवर अमरसिंह ने खानखाना का ध्यान बढ़ाने के लिए शेरगढ़ के पास आक्रमण किया और खानखाना की बेगमों सहित उसके परिवार को बंदी बना लिया। जब महाराणा प्रताप को इस बात का पता चला, तो उन्हें बहुत आत्मग्लानि हुई और उन्होंने कुंवर को खानखाना के परिवार को ससम्मान पंहुचाने की आज्ञा दी। इससे प्रमाणित होता है कि प्रताप अपने शत्रु की स्त्रियों को भी कितना सम्मान देते थे। अकबर ने प्रताप को समाप्त कर उसके साम्राज्य पर आधिपत्य करने के उद्देश्य से विभिन्न सेनापतियों को समय-समय पर मेवाड भेजा, किन्तु 12 वर्ष तक उसे इस उद्देश्य में सफलता नहीं मिली।


महाराणा प्रताप की मृत्यु :- महाराणा प्रताप 19 जनवरी 1597 को शिकार खेलने गए हुए थे... और दुर्भाग्य तथा बुरे समय के कारण मेवाड़ के महान नायक महाराणा प्रताप शिकार के दौरान बुरी तरह घायल हो गये तथा उनकी मात्र 56 वर्ष की अल्प आयु में ही मृत्यु हो गयी। उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले उनके पुत्र अमर सिंह से मुगलों के सामने कभी समर्पण ना करने का वचन लिया और चित्तौड़गढ़ पर फिर विजय प्राप्त करने के लिए कहा। ऐसा भी कहा जाता है कि महाराणा प्रताप की मौत पर शहंशाह अकबर खूब रोया था कि एक बहादुर वीर इस दुनिया से अलविदा हो गया। उनके शव को 29 जनवरी 1597 को चावंड लाया गया एवं अंतिम संस्कार किया गया था ।

जिनके लिए  खुद अकबर ने भी कहा था, कि अगर वो मेरें मित्र होते तो सिर्फ़ हिंदुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया पर मेरा परचम लहराता तो ऐसे थे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जो युवाओं के लिए सदैव प्रेरणास्त्रोत रहेंगे ।