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Sahitya Samhita Journal ISSN 2454-2695

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श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग

 


डॉ. पुष्पा सिंह

एसोसिेएट प्रोफेसर,

असम, भारत

 

शोध सार :  कर्मयोग में आए योग शब्द से क्या तात्पर्य है? जिसकी पुनरावृत्ति बारम्बार गीता में की गई है। योग का अर्थ है समत्व की प्राप्ति, ‘समत्वं योग उच्यते।’ सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता में सम भाव रखना समत्व कहलाता है। आधुनिक युवा की जुबान जो यह कहती है ‘हार के आगे जीत है।’ यदि योग को अपना ले तो यही बात महज जुबान तक न रह कर उनके अन्तर्मन को भी झकझोरेगी। वर्तमान समय में युवाओं के बीच अवसाद, तनाव, चिन्ता जैसे नकरात्मक शब्द आम बात हो गई है। इसका कारण है भौतिक सुख की उत्कट इच्छा। जिसके पीछे युवा पीढी, समाज को पददलित करते हुए भाग रही है और उनके साथ भाग रही है- तनाव, चिन्ता, विषाद। इस विषाद भरे जीवन से यदि मुक्ति पाना है तो गीता में कहे गए योग का अनुसरण अनिवार्य सा प्रतीत होता है। जो विषाद युक्त युवा पीढी को कर्मयोगी बनाने में सहयोगी होगी। अर्थात समत्व की भावना की जागृति होगी। तभी हार के आगे जीत का हौसला बुलन्द रहेगा और चरेवेति-चरेवेति की भावना के साथ सहस्त्र-सहस्त्र कर्मयोगी का नव निर्माण होगा।

बीज शब्द : कर्मयोग, परिपक्व, रणक्षेत्र, लोककल्याण, निष्कामभाव, इन्द्रिय निग्रह, वृक्षारोपण, असक्ति।

 

प्रस्तावना:   

मैंने अपने बाबूजी को मंदिर में पूजा अर्चना करते कभी नहीं देखा। हाँ, लेकिन वे एक चीज नित्य-प्रतिदिन करते थे। सुबह साढे चार, पाँच बजे उठना उनके नियमावली में थी। बढते उम्र के साथ भी अपना काम वे स्वयं करते थे। जैसे, नित्य क्रिया क्रम करने के लिए स्वयं बाल्टी में पानी भर के लाते। स्नान आदि करने के बाद हॉल में टी.वी. खोल कर बैठ जाते और जब तक नाश्ता बन कर नहीं जाता, वे गीता के कई एक श्लोक को दुहराया करते। उन श्लोकों में मुख्य श्लोक कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनथा। मैं घर में सबसे छोटी थी। इसलिए बाबूजी का मुझपर और भाई-बहनों से स्नेह अधिक था। जब बाबूजी मंत्रों को दोहरते तो मैं उनसे उसका अर्थ पूछती। बार-बार पूछे जाने के काण एक दिन बीबूजीकर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन….1  का अर्थ समझाते हुए बोले, ‘कृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं- हे अजुर्न तुम अपना कर्म करो फल की चिन्ता मुझ पर छोड़ दो।’  मैं उनसे बोली. ‘बाबूजी जो व्यक्ति यदि कर्म करेगा तो, निश्चय ही फल की चिन्ता करेगा , क्योंकि हम कर्म करते ही हैं फल के लिए। यदि फल मिलेगा ही नहीं तो कोई कर्म करेगा ही क्यों?’

मेरी प्रश्नों को सुनने के बाद बाबूजी पुन: वही बात दोहराए, ‘कर्म करो फल की चिन्ता मत करो।मैं बाबूजी के उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हुई। दिन बितते गए। दिमाग परिपक्कव होते गया। ग्रंथों को पढने में अभिरुची भी जगी। परिपक्कव होने के उपरान्त ही बाबूजी की बातें समझ सकी। श्रीकृष्ण ने ठीक ही तो कहा है, “तुम केवल कर्म के अधिकारी हो, फल मुझ पर छोड़ दो।

सचमुच जो व्यक्ति निस्वार्थ कर्म करेगा, उसे उसके कर्म का फल अवश्य मिलेगा। उसके लिए चिन्ता करने की आवश्यकता क्या है। चिन्ता तो वह करे जो अकर्मा (कर्मविहीन) है। बीज का वृक्ष में रूपान्तरण क्षण में कहाँ सम्भव है, जब तक वह वृक्ष में रुपान्तरित नहीं होगा फल की प्राप्ति कहाँ से होगी। मानव का धर्म है कर्म करना। यह जरुरी नहीं की फल की प्राप्ति तुरत हो, विलम्ब से ही सही फल की प्राप्ति होगी अवश्य। बस कहीं उकता कर ठहरना नहीं है, नदी की प्रवाह की तरह तबतक प्रवाहित होना है जबतक की सागर की लहरें सम्मान के लिए आगे बढ कर न आएं। 

 ‘या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ। ज्यौं ज्यौं बूड़े स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होई2 - ज्यौं ज्यौं गीता में डूबकी लगाती गई, त्यौं त्यौं यह समझ सकी कि मानव जीवन किसी रणक्षेत्र से कम नहीं है। लेकिन इस जीवन रूपी रणक्षेत्र से  उसे ही सद्गति की प्राप्त होती है, जो निष्कामभाव से लोककल्याणार्थ कर्म करता है। हम देखते हैं कि जन्म से मृत्यु पर्यन्त मानव इस रणक्षेत्र में रोटी, कपड़ा, मकान के जुगार में तरह-तरह के पैंतरे अपना रहा है। सबसे आगे निकलने की होड़ में अपनों को पीछे छोड़ रहा है। इसी रणक्षेत्र में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें जय-पराजय, लाभ-हानि की कोई चिन्ता नहीं है। ऐसे लोग आगे बढना तो चाहते हैं, लेकिन पीछे वालों को भी साथ लेकर। उनके लिए अपने और पराए में कोई भेद नहीं है। उनके कर्मों में लोक विराजता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि तुम कर्मयोग को धारण कर अपना गाण्डीव उठाओ। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान करके युद्ध करो-

                                    सुखदु:खे समें कृत्वा लाभालभौ जयाजयौ।

                                     ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ 3

योग का अर्थ : कर्मयोग में आए योग शब्द से क्या तात्पर्य है? जिसकी पुनरावृत्ति बारम्बार गीता में की गई है, उसपर संक्षिप्त प्रकाश डाल लेना उचित होगा।

 योग का अर्थ है समत्व की प्राप्ति, समत्वं योग उच्यते। सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता में सम भाव रखना समत्व कहलाता है। आधुनिक युवा की जुबान जो यह कहती हैहार के आगे जीत है।यदि योग को अपना ले तो यही बात महज जुबान तक रह कर उनके अन्तर्मन को भी झकझोरेगी। वर्तमान समय में युवाओं के बीच अवसाद, तनाव, चिन्ता जैसे नकरात्मक शब्द आम बात हो गई है। इसका कारण है भौतिक सुख की उत्कट इच्छा। जिसके पीछे युवा पीढी, समाज को पददलित करते हुए भाग रही है और उनके साथ भाग रही है- तनाव, चिन्ता, विषाद। इस विषाद भरे जीवन से यदि मुक्ति पाना है तो गीता में कहे गए योग का अनुसरण अनिवार्य सा प्रतीत होता है। जो विषाद युक्त युवा पीढी को कर्मयोगी बनाने में सहयोगी होगी। अर्थात समत्व की भावना की जागृति होगी। तभी हार के आगे जीत का हौसला बुलन्द रहेगा और चरेवेति-चरेवेति की भावना के साथ सहस्त्र-सहस्त्र कर्मयोगी का नव- निर्माण होगा

                                     आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते4

 दूसरे अर्थों में योग मानव के अन्तर्मन को समत्व की उत्कट भावना से परिपूर्ण कर मानवता के उच्च सोपान पर पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है। जहाँ पहुँच कर मानव निष्काम भाव से अपने कर्म करता है। जहाँ कोई बंधन, कोई अभाव नहीं रह जाता। इस सोपान पर पहुँच कर मानवक्या तेरा और क्या मेरा रे की भावना से विरत होतेरा तुझको सौंपता क्या लागे है मेरा की समत्व भावना से ओत-प्रोत हो कर्मयोगी बन जाता है।

इन्द्रिय निग्रह :  श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए विशेष कर- “ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग,” की विशद व्याख्या करते हैं। अर्थात इन तीनों महत्तवों की प्राप्ति यौगिक प्रक्रिया के फलस्वरूप ही सम्भव है। मानव जबतक अपने आपको साध नहीं लेगा, तबतक उपर्युक्त तीनों तत्वों की सार्थक प्राप्ति सम्भव नहीं है। यौगिक प्रक्रिया के द्वारा ही मानव अपने आपको साध सकता है। क्योंकि योग आध्यात्मिक, शारीरिक और मानसिक प्रथाओं का एक समूह है, जो इस भौतिक जगत में स्वयं के भीतर आध्यात्मिक जगत से मेल कराता है। योग सार्वभौमिक चेतना के साथ व्यक्तिगत चेतना के मिलन का भी प्रतीक है, जो मन और शरीर, मानव और प्रकृत के बीच एक पूर्ण सामंजस्य का संकेत देता है। इसलिए हमारे शास्त्र में ज्ञान, कर्म और भक्ति की तुलना योग से की गई है। गीता हमारी ज्ञान चक्षु को खोलते हुए यह सीख देती है कि बाहरी चेतना में यदि आँखें खुल भी गईं और भीतर घोर तम है तो फिर इस जगत का सुख कहाँ मिल पाएगा। फिर तो जीवन में मृग की तरह भटकाव ही भटकाव रहेगा, कस्तूरी कुण्डलि बसै, मृग ढूँढे बन मांहि। मानव को स्वयं से परिचित कराने का एक मात्र मार्ग योग है। स्वयं को साधने का अर्थ जंगल में जाकर या पहाड़ की ऊँची चोटी पर बैठकर तपस्या करते हुए अपने शरीर को कंकाल बना देना नहीं है। वरन योग का अर्थ है समाज में रहते हुए, अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए निष्काम भाव से कर्म करना। क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ उन्मुक्त विचरण करती हैं वह सकाम कर्म में लिप्त स्वयं की सिद्धि की कामना करता है। इसलिए श्रीकृष्ण हतोउत्साहित अर्जुन से इन्द्रिय निग्रह का उपदेश देते हैं-

                                     यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेsर्जुन।

                                     कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त्ता: विशिष्यते ॥७॥5

 श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए इस वचन में अर्जुन पद का अर्थ स्वच्छ है। भगवान ने अर्जुन पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि अर्जुन तुम निर्मल अंन्त:करण से युक्त हो, अत: तुम्हारे अन्त:करण में कर्तव्यकर्मविषयक यह संदेह कैसे ? इस संदेह से मुक्ति तभी सम्भव है, जब तुम अपनी इन्द्रियों को वश में करके कर्म में लिप्त होगे। मनुष्य अपनी इन्द्रियों का दास बन चुका है। हमारी लगाम इन्द्रियों के हाथ में चली गई है, जबकि उसकी लगाम हमारे हाथ में होनी चाहिए। इन्द्रियों का लगाम जैसे ही हमारे हाथ में होगा, वैसे ही ममता (अपनापन) का सर्वथा अभाव हो जाएगा। सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान्- इसका तात्पर्य यह है कि वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा ही कर्मयोग सफलिभूत होता है। लेकिन उस कर्म में लेश मात्र भी नैष्कर्म्यता का अभाव हो।

                                                 नैष्कर्म्यं पुरुषोSश्रुते

 कर्मयोग में नैष्कर्म्य भाव की प्रधानता : कर्मयोग में कर्म करना अनिवार्य है, लेकिन उसका प्रथम शर्त है उस कर्म में आसक्ति का होना। कर्मयोग का आचरण करने वाला मनुष्य कर्मों को करते हुए ही निष्कर्मता को प्राप्त होता है। जिस स्थिति में मनुष्य के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात बन्धन कारक नहीं होते, उस स्थिति कोनिष्कर्मता कहते हैं।आसक्ति से रहित होकर किए गए कर्मों में फल देने की शक्ति का उसी प्रकार सर्वथा अभाव हो जाता है, जिस प्रकार बीज को भूनने या उबालने पर उसमें पुन: अंकुर देने की शक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है। इसलिए भगवान अर्जुन से कहते हैं, तुम आसक्ति से रहित होकर अपने कर्तव्य कर्म का पालन करो

                                      तस्मादसक्त्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।

                                     असक्त्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुष: 7

 

 अर्थात कर्मयोग में आसक्ति रहित कर्म ही सर्वोपरी है। क्योंकि आसक्ति युक्त मनुष्य कभी पर के लिए कर्म नहीं कर सकता। वह जो करेगा स्व के लिए करेगा।असक्त्तो ह्याचरन्कर्म मनुष्य ही आसक्तिपूर्वक संसार से अपना संबन्ध जोड़ता है, संसार नहीं। मानव ही फल के प्रति आसक्त होता है। कभी वृक्ष को देखा आसक्त होते। वृक्ष तो आसक्ति रहित होकर देने में ही अपने कर्तव्य कर्म को पूर्ण करता है, लेकिन मानव इस प्रवृत्ति से वंचित रहता है। कैसी विडम्बना है वृक्षारोपण करने वाला मनुष्य स्वयं अपने हाथों से उसकी जड़ों में जल अर्पण करते हुए बढते, फलते-फूलते देखता है। यह भी देखता है कि वह वृक्ष अपने फल-पत्तों को कितने उदार भाव से समर्पित कर देता है। मानव उस समर्पित फल को बांहें फैला कर ग्रहण करता है। ग्रहण तो करता है, लेकिन मानव आज तक वृक्ष से असक्ति रहित उस समर्पण भाव को नहीं सीख पाया। अत: मनुष्य का कर्तव्य है कि वह वृक्ष की भाँति संसार के हित के लिए ही सब कर्म करे और बदले में कोई फल चाहे। आसक्ति रहित होकर निरन्तन अपने कर्म को करते जाना ही कर्मयोग है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘कर्मयोग वस्तुत; निःस्वार्थपरता और सत्कर्म द्वारा मुक्ति लाभ करने की एक विशिष्ट प्रणाली है।

कर्मयोग में कौशलता की प्रधानता : कर्मयोग का दूसरा शर्त है उसमेंकुशलताका होना- योगा कर्मो किशलयाम, योग: कर्मसु कौशलम्। तो प्रश्न उठता है कि क्या कोई भी कार्य यदि कौशलता पूर्वक किया जाए तो वह कर्मयोग के दायरे में आएगा? उत्तर है नहीं। प्रत्येक मनुष्य को कर्म करना अत्यन्त आवश्यक है, लेकिन वह कर्म निष्काम भाव से किया जाए। एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि केवल विचार करने और हाथ पर हाथ धरे रहने से कोई कार्य सिद्ध होने वाला नहीं है। कर्म करने से ही कौशलता बढेगी। गुण-अवगुण का ज्ञान होगा। वर्तमान में जो नयी शिक्षा नीती के अन्तर्गतकौशल अधारित शिक्षाकी बात कही जा रही है। वह कहीं--कहीं गीता के कर्मयोग से ही प्रभावित है। कौशल अधारित शिक्षा वर्तमान युवा पीढी में छूपे उनकी कला कौशल को बाहर निकालने में सक्षम होगी और भारत के विकास में भी सहयोगी होगी। तभी निष्कर्मता की सिद्धि भी सम्भव होगी-

                                      कर्मणामनारम्भान्नैष्कम्य पुरुषोSश्रुत 8

 वास्तव में श्रीकृष्ण के मुखार्विन्द से प्रस्फुटित ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्ति योगों में कर्मयोग ही वह योग है जिसके माध्यम से हम अपनी जीवात्मा से जुड़ पाते हैं। लेकिन मनुष्य की आँखें जगत में यत्र-तत्र फैले आकर्षण को देखने में ही तल्लीन है। बाहरी चीजों के परीक्षण और नयी-नयी चीजों के आविष्कार में ही मानव अपनी उन्नति समझने लगा है। इस कार्य को करते हुए उसे गलतफहमी होने लगी है कि वह प्रकृति पर विजय प्राप्त करने में सफल हो रहा है। सोनामी जैसी आपदाएँ उनके मन को नहीं झकझोड़ती हैं। बादल के फटने से धरातल पर मची चिंघाड़ उसके कानों तक नहीं पहुँचती। बाहर की प्रकृति पर नजर रखने वाला मनुष्य स्वयं की प्रकृति को आज तक नहीं समझ पाया। जबतक मनुष्य की दृष्टि सांसारिक भोग और संग्रह की तरफ होगी, तबतक मनुष्य में यह ताकत नहीं है कि वह स्वयं की प्रकृति को समझ सके। कारण की हमारा उन सभी वस्तुओं के प्रति आकर्षण है जो दृष्टिगोचर है और दृष्टिगोचर होने वाली सभी वस्तुएँ नाशवान है। यही वस्तुएँ स्वयं की प्रकृति को जानने में बाधक है। स्वयं की प्रकृति को जानने का सहज माध्यम है गीता का कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। कर्मयोग से मनुष्य स्वयं ही जड़ता का त्याग करता है, ज्ञानयोग में स्वयं ही स्वयं को जानता है और भक्तियोग में स्वयं ही भगवीन के शरण में होता है।

 कर्मयोग में लोककल्याण की भावना की प्रधानता : कर्मयोग का तीसरा शर्त हैलोककल्याण की भावनाका होना। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, ‘कर्म योग मानसिक अनुशासन है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान के मार्ग के रूप में पूरे विश्व की सेवा के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करने की अनुमति देता है। Karma Yoga is a mental discipline Which allows one to carry out one’s duties as a service to the entire world, as a path to enlightenment.’ (written by Swami Bibekanand-Karma Yoga and Bhakti Yoga, published by Ramkrishna Vivekanand Center, New York) एक अनुशासित मनुष्य स्व से सर्व की ओर अग्रसर होता है। स्व के अनुशासन में सर्व के कल्याण की भावना निहित होती है। तुलसी दास स्वान्त: सुखाय की बात करते-करते जगत की कल्याण की बात कर जाते हैं। अर्थात जगत के कल्यण हेतु तुलसीदास ने रामचरित मानस जैसे अन्यान्य ग्रंथों की रचना करके कर्मयोग की सिद्धि की है -

                                     सुरसरि सम सबकहँ हित होई।। 9

 सूर्य, वैवस्वत मनु, राजा इक्ष्वाकु आदि 10  जैसे अनेकानेक महापुरुष गृहस्थाश्रम में रहकर निष्कामभाव से सब कर्म करते हुए परमसीद्धि को प्राप्त हुए। मानव जन्म बड़ा दुर्लभ है। दुर्लभ मानव योनि में जन्म लेने के बाद यदि जगत के हित के लिए कोई कर्म नहीं कर सके तो यह मानव जीवन निरर्थक है। कर्मयोग ही उत्तम सन्यास है। कर्मच्यूत होकर संसार के दु:खों से विरत हो जंगल मे जाकर योगनिद्रा में लीन होजाना संयास नहीं है। वरन समस्याओं से पलायन कर निज की सिद्धि करना मात्र है। श्रीकृष्ण संन्यासी की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए अर्जुन से कहते हैं-

                                     संन्यास्तु महाबाहो दुखमाप्तुमयोगत:

                                    योगयुक्त्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥11

 ‘मुनिब्रह्मअर्थात मुनि वही है जो निष्कामभाव से दूसरों के हित का मनन करते हुए कर्म करता है। गृहस्थाश्रम में रहकर भी मनुष्य सन्यासी जैसा जीवन व्यतित कर सकता है। क्योंकि उसके कर्म में जगत के कल्याण का भाव समाहित होगा-

                                     कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:

                                    लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥12

(अर्थात राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इसलिए लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने योग्य है।)

 प्रत्येक मनुष्य यदि अपने-अपने कर्तव्य का उचित निर्वाह करने लगे तो धरती पर एक भी मनुष्य रोटी के बगैर नहीं सो सकता। सबके सर पर छत और सबके तन पर वस्त्र होगा। चोरी होगी डकैती और ही कोई किसी के खून का प्यासा होगा। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में कम से कम एक बार गीता के कर्मयोग का अध्ययन करना चाहिए। इससे फायदा यह होगा कि अपना तो कल्याण होगा ही जगत का भी कल्याण हो जाएगा-

                                    गीता सुगीता कर्व्याकिमन्यै: शास्त्रविस्तरै:

                                    या स्वयं पद्यनाभस्य मुखपद्याद्विनि: सृता: 13

कर्मयोग में कर्तव्यबोध की प्रधानता :  कर्मयोग का चतुर्थ शर्त है कर्तव्यपरायणता गीता के अनुसार कर्तव्यमात्र का नामयज्ञहै।यज्ञशब्द के अन्तर्गत यज्ञ, दान, तप, होम, तीर्थ, सेवन, व्रत, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यवहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ जाती हैं। कर्तव्य मानकर किए जाने वाले व्यपार, नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मों का नाम भी यज्ञ है। दूसरों को सुख पहुँचाने तथा उनका हित करने के लिए जो भी कर्म किए जाते हैं, वे सभी यज्ञार्थ कर्म है- यज्ञार्थात् कर्मणोsन्यत्र 14

 लेकिन उस कर्तव्यबोध में फोटो सेशन की बात नहीं होनी चाहिए। अर्थात दिखावा, जो वर्तमानयुग में फैशन बन गया है। लोगों के बीच अपनी महानतम स्थिति को प्रकट करने के लिए किए गए कर्म में लोककल्याण की भावना लक्षित नहीं होती। कोई देखे देखे, लोकमर्यादा के अनुसार अपने-अपने कर्तव्य पालन करने से लोकोपकार स्वत: सिद्ध है।

                                     अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोsस्त्वष्टकामधुक् 15  

ब्रह्मा जी मनुष्यों से कहते हैं कि तुमलोग अपने-अपने कर्तव्य पालन के द्वारा सबकी वृद्धि करो, उन्नति करो। ऐसा करने से तुमलोगों को कर्तव्य कर्म करने में उपयोगी सामग्री प्राप्त होती रहे। उसकी कभी कमी न रहे। स्पष्ट है, मानव के कर्म में ही सृष्टि की उन्नति है। अकर्मण्यता अवन्नति का कारण है। इससे स्वयं का पतन तो होता ही है। बेवजह धरती का बोझ भी बढता है।

 सचमुच धरती को स्वर्ग बनना है तो कर्मपरायणता को स्वीकार करना होगा। जीवों में श्रेष्ठ मानव की श्रेष्ठता उसके कर्तव्य कर्म द्वारा सार्थक होगी। प्रकृति के दोहन पर विराम लगेगा। पर्यावरण की सुरक्षा की भावना बलवती होगी। सोनामी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी। यदि ऐसा हो गया तो राम राज्य की पुन: स्थापना होगी। जहाँ दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से कोई पीडित नहीं होगा और भारतीय संस्कृति का एकमात्र उद्देश्य जगत- कल्याण की भावना फलीभूत होगी। इसी उद्देश्य से ब्रह्माजी मनुष्य को नि:स्वार्थ भाव से अपने-अपने कर्तव्य द्वारा एक-दूसरे को सुख पहुँचाने की आज्ञा देते हैं। हम देखते हैं कि देवगण भी धरती पर अवतार लेकर अपने कर्म द्वारा मानव को उनके कर्तव्य कर्म का बोध कराते हैं। ताकि पीढी दर पीढी कर्तव्य कर्म की परम्परा समाज में कायम रहे।

                                    यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:

                                      यत्प्रमाणं कुरुते लेकस्तदमुवर्तते 16

 

 श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैँ। बोल चाल की भाषा में हम सभी सुनते-कहते रहे हैं, ‘जो बड़े करेंगे वही छोटे करेंगे।वह जो कुछ प्रमाण देते हैं, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं। इसलिए भगवान अर्जुन से कहते हैं- मुझे तीनों लोकों में तो कुछ कर्तव्य है और कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्य कर्म में ही लगा रहता हूँ।

                                    यदि ह्यहं वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:

                                     मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥३।२३॥

                                     उत्सीदेयुरिमे लोका किर्यां कर्म चेदहम्।

                                    संकरस्य कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा 17

(हे पार्थ ! अगर मैं किसी समय सावधान होकर कर्तव्य कर्म करूँ, तो बड़ी हानि हो जाएगी क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुशरण करते हैं। यदि मैं कर्म करूँ, तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता को करने वाला तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करना वाला बनूँ। )

 अंतत: हम यही कह सकते हैं कि वर्तमान युग में भूमण्डलीकरण के कारण बाजारवाद की ओर भागते समाज में, स्व के बंधन में बंधे समाज में भगवदगीता में साक्षात भगवान के श्रीमुख से नि:सृत कर्मयोग का अध्ययन, अध्यापन, मनन और विश्लेषण अति आवश्यक है। क्यों आवश्यक है इसको स्पष्ट करते हुए अपने कलम को विराम देंगे-

                                     यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत

                                    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मनं सृजाम्यहम ॥४।७॥

                                     परित्राणाय साधूनां विनाशाय दुष्कृताम्

                                    धर्मसंस्थापनार्थाय संभवा युगे युगे 18

(अर्थात हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आपको साकार रूप में प्रकट करता हूँ। भक्तों की रक्षा करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की भलीभाँति स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।)

 इसे इस अर्थ में समझ सकते हैं, जब-जब मानव मन अधर्म से आन्दोलित होता है, पाप कर्म की वृद्धि होती है, काम-क्रोध मानव हृदय पर अपना स्थाई ठिकना जमा लेता है, स्थिर मन अस्थिर हो उठता है। तब-तब मैं (धर्म) मानव मन में योग के माध्यम से उत्पन्न होकर विनाश को रोकता हूँ। उनके भीतर धर्म की स्थापना करते हुए सन्तुलित जीवन प्रदान करता हूँ और कर्मयोगी के रूप उनका नव निर्माण करता हूँ।  

 

संदर्भ ग्रंथ

1. ॥२।४७॥ स्वामी रामसुखदास- श्रीमद्भागवदगीता शाधक- संजीवनी, हिन्दी-टीका, गीताप्रेस गोरखपुर1॥७॥५

2. बिहारी सतसई, पृष्ठ-२४१

3. २।३८॥ स्वामी रामसुखदास- श्रीमद्भागवदगीता शाधक- संजीवनी, हिन्दी-टीका, गीताप्रेस गोरखपुर

4. ६।३॥ वही

5. ॥७॥ वही

6. ॥३।४॥ वही

7. ॥३।१९॥ वही

8. ॥३।४॥ वही

9. (रामचरित मानस, बालकाण्ड

10. ४।१॥ स्वामी रामसुखदास- श्रीमद्भागवदगीता शाधक- संजीवनी, हिन्दी-टीका, गीताप्रेस गोरखपुर

11. ॥५।६॥ वही

12. ॥३।२०॥ वही

13. : गीता महात्म्य

14. ॥३।९॥ स्वामी रामसुखदास- श्रीमद्भागवदगीता शाधक- संजीवनी, हिन्दी-टीका, गीताप्रेस गोरखपुर

15.॥३।१०॥ वही 

16. ॥३।२१॥ वही

17. ॥३।२४।। वही   

18. ॥४।८॥ वही