हिंदी उपन्यास परम्परा में किसान जीवन का चित्रण : यथार्थ, संघर्ष और संवेदना
डॉ. बालकृष्ण सी
सहायक प्राध्यापक (Assistant Professor)
कला एवं मानविकी विभाग (Department of Arts and Humanities)
क्राइस्ट अकादमी
इंस्टीट्यूट फ़ॉर एडवांस्ड स्टडीज़,
बेंगलुरु (Christ Academy Institute for Advanced
Studies, Bengaluru)
सारांश
हिंदी उपन्यासों
में किसान जीवन का चित्रण केवल साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज के सामूहिक इतिहास, यथार्थ और संघर्ष का दर्पण है। भारत की सामाजिक संरचना में
किसानों की केंद्रीय भूमिका रही है, और इसी कारण
साहित्यकारों ने किसानों के जीवन, उनकी समस्याओं, उनके शोषण और उनकी संस्कृति को रचनात्मक रूप से अभिव्यक्त
किया। प्रेमचंद के गोदान से लेकर
फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आँचल और
समकालीन लेखकों तक, किसान जीवन की प्रस्तुति बदलते समय और
बदलती सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का प्रमाण है।
भूमिका
भारतीय समाज
सदियों से कृषिप्रधान रहा है। गाँवों को "भारत की आत्मा" कहा गया है
(गाँधी, 1936)। किसान न केवल आर्थिक उत्पादन का आधार
रहे हैं बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा के वाहक भी रहे हैं। यही कारण है कि
हिंदी उपन्यास परम्परा में किसान जीवन बार-बार रचनाकारों को आकर्षित करता रहा है।
प्रारम्भिक उपन्यासों में जहाँ किसान का चित्रण गौण था, वहीं प्रेमचंद ने इसे केन्द्रीय विषय बनाया। उसके बाद आंचलिक, प्रगतिवादी और समकालीन उपन्यासों में किसान जीवन की विविध
छवियाँ मिलती हैं।
प्रेमचंद और किसान जीवन का यथार्थ
प्रेमचंद का गोदान (1936) हिंदी उपन्यास
परम्परा में किसान जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। होरी और धनिया जैसे पात्रों के
माध्यम से प्रेमचंद ने न केवल किसानों की आर्थिक दुर्दशा, कर्ज़ और शोषण को प्रस्तुत किया बल्कि उनकी मानवीय संवेदनाओं को भी गहराई दी।
रामविलास शर्मा लिखते हैं—"गोदान भारतीय किसान जीवन का महाकाव्य है" (शर्मा, 1952)।
प्रेमचंद के
अन्य उपन्यासों जैसे निर्मला, कर्मभूमि और रंगभूमि में भी किसान और ग्रामीण जीवन की
समस्याओं का गहरा चित्रण है।
प्रगतिवादी दृष्टि और किसान
1936 के बाद प्रगतिवादी धारा में किसान और
मजदूर वर्ग के संघर्ष को केन्द्र में रखा गया।
- रांगेय राघव के कब तक पुकारूँ (1947) में किसान और मजदूर के विद्रोही तेवर दिखाई देते हैं।
- यशपाल ने अपने उपन्यासों (दिव्या, मेरी तेरी उसकी बात) में किसान और श्रमिक जीवन को वर्ग-संघर्ष के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया।
- उपेन्द्रनाथ अश्क के गिरती दीवारें में भी ग्रामीण समाज का यथार्थ स्पष्ट रूप में सामने आता है।
आंचलिक उपन्यास और किसान की संस्कृति
फणीश्वरनाथ रेणु
का मैला आँचल (1954) आंचलिक उपन्यास
का आदर्श उदाहरण है। इसमें किसान केवल पीड़ित नहीं बल्कि लोकसंस्कृति और परंपरा का
संवाहक है। रेणु ने किसानों के त्यौहार, लोकगीत, बोलचाल, रीति-रिवाज और
संघर्ष को अत्यंत जीवंत रूप में प्रस्तुत किया। नामवर सिंह के अनुसार—"मैला
आँचल भारतीय ग्रामजीवन की जीवित झांकी है" (सिंह, 1989)।
समकालीन उपन्यास और बदलता किसान जीवन
वैश्वीकरण और
बाज़ारवाद के दौर में किसान जीवन की समस्याएँ बदल गई हैं।
- श्यौराज सिंह बेचैन, संजीव और चित्रा मुद्गल जैसे लेखकों ने किसान
आत्महत्या, ऋणग्रस्तता और भूमिहीनता को प्रमुख
विषय बनाया।
- संजीव के उपन्यास फाँस में
किसानों की दुर्दशा और सामाजिक विडम्बनाओं का यथार्थ चित्रण है।
- समकालीन लेखकों ने यह दिखाया है कि
कृषि संकट केवल स्थानीय समस्या नहीं बल्कि राष्ट्रीय और वैश्विक पूँजीवादी
व्यवस्था से जुड़ा हुआ मुद्दा है।
निष्कर्ष
हिंदी उपन्यास
परम्परा में किसान जीवन का चित्रण साहित्य को सामाजिक यथार्थ से जोड़ता है।
प्रेमचंद से लेकर रेणु और समकालीन लेखकों तक, किसानों का जीवन साहित्य में केवल दारुण पीड़ा का प्रतीक नहीं रहा बल्कि
संघर्ष, अस्मिता और संस्कृति का दर्पण भी रहा है।
उपन्यासों में किसानों का यह चित्रण भारतीय समाज की गहरी समझ प्रदान करता है और यह
दिखाता है कि साहित्य और समाज का संबंध अभिन्न है।
संदर्भ सूची (हिंदी स्रोत)
- प्रेमचंद। गोदान।
प्रयाग: सरस्वती प्रेस, 1936।
- प्रेमचंद। कर्मभूमि।
प्रयाग: सरस्वती प्रेस, 1932।
- रांगेय राघव। कब तक पुकारूँ। दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1947।
- फणीश्वरनाथ रेणु। मैला आँचल। दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ, 1954।
- यशपाल। मेरी तेरी उसकी बात। दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1958।
- उपेन्द्रनाथ अश्क। गिरती दीवारें। इलाहाबाद: किताब महल, 1947।
- संजीव। फाँस। दिल्ली:
वाणी प्रकाशन,
2010।
- रामविलास शर्मा। प्रेमचंद और उनका युग। इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन, 1952।
- नामवर सिंह। आलोचना और अन्य लेख। दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1989।
- आचार्य नगेन्द्र। हिंदी उपन्यास और यथार्थ। वाराणसी: भारती भवन, 1975।
- डॉ. नंदकिशोर नवल। हिंदी उपन्यास का इतिहास। दिल्ली: लोकभारती, 2002।
- डॉ. कमल किशोर गोयनका। हिंदी उपन्यास: विकास और मूल्यांकन। दिल्ली: लोकभारती, 1985।
- गांधी, मोहनदास करमचन्द। हिन्द
स्वराज।
अहमदाबाद: नवजीवन प्रकाशन, 1936।

