लाल लकीर- नक्सलवाद की समस्या एवं नैराश्य और प्रेम का अंतर्द्वंद
शोधार्थी
- अंकित भोई
शोध
निर्देशक - डॉ. सुधीर शर्मा
शोध
केंद्र - कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिलाई नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शोध-सार
–
आचार्य
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है। किसी भी समय का साहित्य
तत्कालीन घटित होने वाली घटनाओं से प्रेरित होता है। साहित्य में रचित बातें तत्कालीन
समाज के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक घटनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। 15 अगस्त
1947 को जब देश आजाद हुआ तो आजादी के साथ अनेक विसंगतियाँ भी आई। संविधान में भारतवर्ष
को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक, पंथनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य की संज्ञा
दी गई है पर व्यवहारिक परिस्थितियाँ कुछ और ही हैं। आज भी देश में गरीबी, बेरोजगारी,
भुखमरी, असमानता और शोषण जैसी समस्याएं मुँह फाड़े खड़ी हैं। उक्त समस्याओं ने सन
1967 में नक्सलवाद की समस्या को जन्म दिया है। हमने अंग्रेजों से तो आजादी प्राप्त
कर ली किन्तु देश के भीतर ही कुछ ऐसे तत्व हैं, जो लोकतंत्र में बाधा हैं। ऐसे ही तत्वों
को नक्सलवादी कहा जाता है। प्रस्तुत शोधपत्र में छत्तीसगढ़ के प्रमुख नक्सलगढ़ बस्तर
को आधार मानकर लिखे गए उपन्यास लाल लकीर में नक्सलवाद की समस्या का गहनतापूर्वक अवलोकन
किया गया है।
भारत एक कृषिप्रधान देश है। नक्सल समस्या का
मूल कारण कृषकों का शोषण है। “भारतवर्ष
एक बहुलवादी समाज है जहां विभिन्न समुदाय के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के धार्मिक, सामाजिक
तथा सांस्कृतिक महत्वाकांक्षा रखते हैं। उनकी न सिर्फ जीवन पद्धति अलग है बल्कि जीवन
के बारे में सोच भी अलग है। यह सत्य है कि देश के हर क्षेत्र में समान बदलाव हो रहे
हैं। यदि कहीं बदलाव नहीं हो पाये तो समाज का वह हिस्सा विकास के लाभों से वंचित रहा
है। यह वंचित समुदाय किसी भी ऐसे आंदोलन या विद्रोह के लिए तैयार समूह है जो सरकार
के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद करना चाहता है और उसमें हिस्सेदारी खोजता है। यह समूह
असंतोष से भरा पड़ा है तथा अपनी मांगें मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लेने से भी पीछे
नहीं हटता। भले ही यह सोच भारत की पारंपरिक उदार विचारधारा के खिलाफ ही क्यों ना हो?
क्योंकि वंचनाओं ने उनके भीतर एक आक्रोश को जन्म दिया है तथा इस भावना को भी जन्म दिया
है कि अपने हकों को अब छीन कर ही लेना होगा और समग्र रूप से हिंसा द्वारा जीवन दशाओं
में परिवर्तन का माओवादी सिद्धांत उन्हें आकर्षक ही नहीं बल्कि अंतिम विकल्प सा प्रतीत
होता है।“1
नक्सल समस्या पर साहित्य रचना का इतिहास ज्यादा
पुराना नहीं है। प्रगतिवादी कवि सुदामा पांडे धूमिल ने अपने पहले ही काव्य संकलन में
‘नक्सलबाड़ी’ शीर्षक से एक कविता लिखी है। “पटकथा
में कवि लिखता है -’भूख से तनी हुई हथेली का नाम /गया है/और भूख से तनी हुई मुट्ठी
का नाम नक्सलबाड़ी है।”2
वर्ष 2016 में प्रकाशित इस उपन्यास का कथानक
बस्तर में पुलिस और नक्सलवादियों के बीच पिसते आदिवासियों की पीड़ा को व्यक्त करता है।
उपन्यास की शुरुआत किसी बॉलीवुड फिल्म के दृश्य के समान होती है, जब बस्तर के अरनपुर
से कुछ किलोमीटर दूर काली पहाड़ी पर एसपी संचित चौधरी अपनी टीम के साथ दो संदेही नक्सल
कमांडर अप्पल राजू और करतम गंगा के पीछे बंदूक लेकर भागता है। नव पदस्थ पुलिस अफसर
संचित चौधरी नक्सलियों से लड़ने के लिए केवल बंदूक ही नहीं बल्कि मुखबिर नेटवर्क की
आवश्यकता को भी महसूस करता है। चूंकि नक्सल कमांडर अप्पल राजू और करतम गंगा प्रमुख
नक्सल लड़ाकू में से एक हैं, पूरे बस्तर जोन के कमांडर नक्सली नेता बीरम राव इन दोनों
को ही बारूदी सुरंग बिछाने एवं काडर में नई भर्तियां करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी
सौंपता है, इसलिए पुलिस इन दोनों के पीछे पड़ी हुई थी। मुठभेड़ के अंत में घायल होकर
करतम गंगा पुलिस से घिर जाता है और अप्पल राजू भी दो गोलियां लगने के बाद हथियारबंद
पुलिस वालों के बीच फंस जाता है।
घटनास्थल से कुछ ही किलोमीटर की दूरी ऊंचा पड़ा
गांव में गोंडी गीत संगीत का आयोजन हो रहा था, सामान्यतः ऐसे किसी आयोजन में हजारों
आदिवासियों की उपस्थिति से माहौल मस्तमौला बन जाता था किंतु उस दिन सभी चेहरों से मौज
मस्ती के भाव गायब थे। शहर की चकाचौंध से बहुत दूर छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष जैसी भावनाओं
से पूर्णतः रहित इस आदिवासी क्षेत्र में अभी भी तथाकथित विकास नहीं पहुंच सका था। “पिछले कई सालों तक यह सारे गांव दक्षिण
बस्तर में आदिवासी कला और संस्कृति के घर बने रहे। दोरनापाल, जगरगुंडा और करनपुर में
तो बड़े-बड़े बाजार लगा करते थे, जहां लोग दूर-दूर से आया करते। पिछले कुछ वक्त से भले
ही इन बाजारों में रुपए पैसे का चलन शुरू हो गया हो, लेकिन अधिकतर आदिवासी अभी सामान
की अदला-बदली ही किया करते। कोई महुआ के बदले कपड़े ले जाता। कोई मुर्गियों को दिखा
अनाज खरीद लेता। कोई जंगल उत्पादों के बदले बर्तन या फिर तेल, मसाले और जरूरत का दूसरा
सामान। हिंदुस्तान के एक बहुत बड़े हिस्से में अब तक ना रुपये-पैसे की चमक-दमक पहुंची
थी न ही शहरी छल-कपट की छाया।”3
देश को आजादी प्राप्त किए भले ही छह दशक हो गए
हो किंतु आज भी बस्तर में एक अलग ही भारत बसता है। चुनावी समय में हाथ जोड़कर वोट मांगने
वाले नेताओं ने ना तो इस क्षेत्र में जाने की कभी जहमत उठाई और ना ही जरूरत समझी। इसी
परिस्थिति का लाभ उठाया नक्सलवादियों ने। मध्य भारत के अत्यंत पिछड़े क्षेत्रों में
से एक बस्तर में नक्सलवाद के पनपने हेतु तमाम अनुकूल परिस्थितियां मौजूद थीं। “आंध्र प्रदेश की सीमा से लगे होने के कारण
पीपुल्स वार के कामरेड दंडकारण्य को अपना हेड क्वार्टर बनाने की सोचने लगे। बस्तर के
यह घने जंगल माओवादियों की गुरिल्ला रणनीति के लिए बिल्कुल माकूल थे। 1980 के दशक की
शुरुआत में छोटे-छोटे गुटों में माओवादी बस्तर में दाखिल हुए और गांव वालों के साथ
मीटिंग शुरू की। यह वह दौर था जब बस्तर में जंगलात के लोगों और पुलिस वालों की ही मनमानी
चलती। आदिवासियों को उनके बंधुआ मजदूरों की तरह रहना पड़ता है। खासतौर से फॉरेस्ट गार्ड
तो वनवासियों के लिए सबसे डरावना नाम था। उनके शोषण के लिए यही सबसे अधिक जिम्मेदार
थे। न तो जंगल में पैदा होने वालों का हक होता न ही उनकी मजदूरी उन्हें दी जाती। आदिवासियों
के भीतर हताशा और कमजोरी का भाव बहुत गहरा था।”4
कृषि प्रधान ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महुआ बीनने
की परंपरा थी। रामदेव और भीमे भी इन्हीं जंगलों में साथ खेले और बड़े हुए। किशोरावस्था
से युवावस्था में प्रवेश के दौर में ही दोनों का परस्पर प्रेम और प्रगाढ़ होता गया।
बस्तर की प्रमुख सांस्कृतिक परंपराओं में से एक घोटुल परंपरा ने उनके प्रेम को और पुष्ट
किया। घोटुल की व्याख्या करते हुए लेखक लिखते हैं कि- “बस्तर
के कुछ आदिवासी इलाकों में अभी भी घोटुल परंपरा जिंदा है जहां आदिवासी किशोर और युवा
एक साथ शिक्षा, संस्कृति और समाज के बारे में बहुत कुछ सीखते हैं। लड़के और लड़कियां
दोनों। यहां पर लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं होता। विवाह से पहले जवान लड़के लड़कियां
एक दूसरे के साथ लंबा वक्त भी गुजारा करते हैं। जोड़े ना केवल एक दूसरे को जानते हैं
बल्कि प्यार के अंतरंग पलों तक जाते हैं। शायद सेक्स के वक्त एक दूसरे को संतुष्ट करने
की क्षमता और चाहत का अंदाजा लगाने के लिए। आदिवासी समाज का ऐसा खुलापन अब भी महानगरों
में वर्जनाओं में गिना जाता है।”5
माओवादियों ने बस्तर के चप्पे-चप्पे में अपनी
जड़े जमा ली। वह स्वयं को बस्तर के घने जंगल का असली दावेदार कहते और निर्दोष आदिवासियों
पर रौब जमाते। मध्य प्रदेश से पृथक होकर छत्तीसगढ़ का स्वतंत्र राज्य बनने के बाद भी
हालात जस के तस थे। “बस्तर
के गांव में रह रहे आदिवासी अपनी ही धुन में जी रहे थे। उन्हें इस बात से मतलब था ही
नहीं कि देश में सरकार किसकी है। प्रधानमंत्री कौन है या उनके सूबे का मुखिया कौन है।
ज्यादातर लोग खेती किसानी में मसरूफ रहते। जंगल से महुआ लाते। लकड़ी और फल बटोरते। नाचते,
गाते और नशा करते। माओवादी अब भी पहले की तरह बस्तर के जंगलों में घूम रहे थे। क्रांति
का सपना संजोये और बुर्जुआ सरकार और ब्यूरोक्रेटिक सेटअप के खिलाफ नारे लगाते। सरकार
शहरों या बाहरी गांवों तक ही सीमित थी। अंदर के गांवों में वर्दी पहने दादा लोग ही
सरकार चलाते।“6
समय करवट लेते गया और धीरे-धीरे भीमे बड़ी होने
लगी। पिता की हत्या के जख्म अभी भी भर नहीं थे लेकिन उसने वक्त के साथ खुद को संभाला
और एक दिन वह जूनियर हाई स्कूल में शिक्षिका बन गई। बस्तर में शिक्षा व्यवस्था अत्यंत
बदतर थी। भीमे के चिट्टापाड़ा जूनियर हाईस्कूल में हेडमास्टर समेत कुल चार शिक्षक थे।
स्वभाव से कामचोर हेडमास्टर अक्सर सरकारी काम के बहाने स्कूल से नदारत रहते। गणतंत्र
दिवस के अवसर पर स्कूल में एक छोटा सा जलसा आयोजित किया गया था। जलसे में बारी-बारी
से सभी शिक्षकों ने अपना उद्बोधन दिया। किसी ने झंडे की महत्ता बताई तो किसी ने शहीदों
की शहादत को याद किया। पर उक्त शिक्षकों की कथनी और करने में जमीन आसमान का अंतर था।
भीमे को अपने सहकर्मियों के शब्द खोखले लगे क्यूंकि बचपन से ही उसने वन कर्मचारी के
भ्रष्टाचार, भूख, सरकारी राशन की चोरी, स्कूलों से टीचरों की नदारदगी देखी। अंत में
भीमे ने अपने बच्चों को जमीनी जुड़ाव का संदेश देते हुए कहा - “बच्चों यह तिरंगा झंडा हमें देश से प्यार
करना सिखाता है। लेकिन तुम सबको याद रखना है कि देश से भी बड़ी एक चीज है। और वह है
एक इंसान। हमारे आपस में एक दूसरे से पड़ोसी का रिश्ता। देशभक्ति की यह बातें हमेशा
अपने दिल में रखने पर यह भी सोचना कि कहीं यह बातें तुम्हें ना भटकाएं क्योंकि अपने
पड़ोसी से प्यार करना और अपने साथी का ख्याल रखना सबसे बड़ी बात है। अपने पड़ोसी से, अपने
साथी से प्यार करोगे तो हमेशा जमीन से जुड़कर रह पाओगे।“7
भीमे के तेवर जरूर तल्ख़ थे पर बातें सौ टके सच थी। उसने जब से होश संभाला तब से उस
बस्तर को देखा था जो अपने अंदर दरिद्रता और भुखमरी समेटे हुए था।
जब मौसम परिवर्तन होता है, तब लोगों का स्वास्थ्य
खराब होता है। मौसम परिवर्तन आ होते ही बस्तर में स्थिति और ख़राब हो जाती है। एक तरफ
तेज गर्मी और दूसरी तरफ बरसात के बाद उमस से होने वाली बीमारियां विकराल हो जाती हैं।
समाज की मुख्यधारा से दूर बस्तर में मलेरिया और उल्टी-दस्त से मृत्यु की घटना आम बात
है।
बस्तर के स्कूलों में शिक्षक अक्सर गायब रहते
हैं। कोई शिक्षक सप्ताह में एक दो बार आता है तो कोई महीना तक भी नहीं आता है। यहीं
के चिट्टापाड़ा स्कूल में पदस्थ रमेश जब अपने घर धमतरी गया तो किसी ने उसे सलाह दी कि
बस्तर में शिक्षक रहते हुए स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन परीक्षा की तैयारी करना सबसे
उपयुक्त होता है क्योंकि वह नौकरी छोड़े बिना ही विद्यालय से गायब रहकर परीक्षा की तैयारी
के लिए पर्याप्त समय निकाल सकता है। ऐसे वातावरण में भी भीमे ईमानदारी पूर्वक नियमित
विद्यालय जाती है। अपने ही हेडमास्टर को टोकने पर भीमे पर भड़ास निकालते हुए हेड मास्टर
भड़क कर कहते हैं- “कोई
नहीं आता इन इलाकों में पढ़ने जहां हगने की भी कोई सुविधा नहीं, सड़क नहीं, अस्पताल नहीं
और जान का खतरा है सो अलग। ये स्कूल तो फिर भी ठीक चल रहा है जहां चपरासी आ़कर घंटी
तो बजाता है।“8 भीमे
के साथ वाद-विवाद करते हुए हेडमास्टर झा अप्रत्यक्ष रूप से नक्सलियों को इसका जिम्मेदार
बताता है। “क्योंकि
यहां लोग बदलना नहीं चाहते। वह जंगल में रहना चाहते हैं। तीर कमान के साथ। उन्हें पढ़ाई
करने से अधिक महुआ बटोरना अच्छा लगता है। इसका फायदा वह क्रांतिकारी उठा रहे हैं जो
यहां बंदूक लेकर घूमते हैं और कोई यहां नहीं आता।“9
रामदेव और भीमे परस्पर प्रेमी ही नहीं थे बल्कि
अच्छे दोस्त भी थे। एक तरफ भीमे जहां निष्ठा पूर्वक अपना शासकीय दायित्व निभाती तो
दूसरी तरफ अन्य टीचर चपरासी के भरोसे ही स्कूल चलाते, ऐसी अव्यवस्था में भीमे के निराश
हो जाने पर रामदेव हमेशा उसका मनोबल बढ़ाया करता था। प्रतिकूल परिस्थितियों की बावजूद
भी दोनों ही बच्चों को पढ़ाने की जरूरत को समझते। रामदेव की हौसला अफजाई का ही प्रभाव
था कि भीमे एक चपरासी और स्वयं के दम पर ही पूरे विद्यालय का संचालन कर रही थी। “रामा हम आदिवासियों को कोई इंसानों में
नहीं गिनता। शहरी समाज की नजर में वह गिनती में नहीं है। लगता है कि यहां के गरीब बच्चों
को पढ़ने का कोई अधिकार है ही नहीं।“10
केवल शिक्षकों का विद्यालय ना आना है एकमात्र कारण नहीं था, असली दिक्कत महिलाओं की
भागीदारी में कमी भी थी। बच्चों की माताएं भी जागरूक नहीं थी। आदिवासी समाज में आरंभ
से ही महिलाओं की भूमिका प्रमुख रही है। ऐसी परिस्थितियों में भीमे ने महिलाओं को संगठित
करने का मन बना लिया। दूसरी ओर आदिवासियों की शोषण पुलिस प्रशासन मलेरिया महामारी की
रोकथाम में लगे स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच अपने मुखबिरों का नेटवर्क तैयार कर लिया।
दुर्गम क्षेत्रों में ही अक्सर नक्सली छिपते
थे, ऐसी जगह से ना तो मदद की मांग पहुंचती थी करना ही उन क्षेत्रों का ज्ञान हेल्थ
वर्करों को होता था, इसलिए हेल्थ वर्कर भी वहां बेवजह जाने से बचते थे। “भैया माओवादी मलेरिया की गोलियां थोक में
खरीदते हैं लेकिन सुना है इन दोनों भीतर बहुत सारे लोग बीमार पड़ रहे हैं। नक्सलियों
को लगता है कि इन सबके लिए बार-बार दवा खरीदने में पुलिस के हाथों पकड़े जाने का डर
है। थोक में दवा खरीदने वालों को पुलिस शक की नजर से देखती है।“11 ऐसी स्थिति में ईमानदारी पूर्वक काम
करने वाले हेल्थ वर्कर भी असुरक्षा भावना से ग्रस्त हो गए।
नया नक्सली कमांडर संजीवन रेड्डी संगठन का विस्तार
कर रहा था। व्यवस्था से शोषित महिलाओं को ढूंढ कर वह एक बागियों का एक दल तैयार करना
चाहता था। सरिता और सीमा ने ऐसी महिलाओं को एकजुट करना शुरू किया, वे माओवादियों का
बैनर पोस्टर और लाल झंडा लिए सरकार के खिलाफ नारे लगाते हुए क्रांति की पुकार को आवाज
दे रही थी। चेतना नाट्य मंच के माध्यम से सरकार की दमनकारी नीतियों को बताते हुए माओवाद
का रास्ता अपनाना के लिए लोगों को तैयार कर रही थी। “आज
सब जान क्या चाहते हैं... छुटकारा। बुर्जुआ सरकार के दामन से छुटकारा। पार्टी इसी के
लिए काम कर रही है। हम जन युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। इस जन युद्ध में सब का हिस्सा
होना चाहिए। सबका। महिलाओं का भी। महिलाएं जन युद्ध का हिस्सा बनें। ये पार्टी का इरादा
है और पार्टी की मांग भी है।“12
भीमे और उसकी सहेली सुरी को चार हथियार माओवादियों
ने पकड़ लिया। भीमे हिंसा का पुरजोर विरोध करते माओवादियों के समक्ष निहत्थे निर्भीक
खड़ी थी। अपने निर्दोष बाप की मौत का दृश्य आज भी उसके जेहन में कौंधता था। माओवादियों
ने डरा धमका कर भीमे और उसकी सहेली सुरी का परिचय जाना। सुरी ने महिला काडर को कुछ
पर्चे और पामप्लेट निकाल कर दिए जिसमें महिलाओं की जागरूकता वाले चित्र संदेश अंकित
थे। भीमे ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह हेड़िया कुंजाम की बेटी है। हेड़िया कुंजाम
की हत्या की खबर बहुत चर्चित हुई थी। एक निर्दोष शिक्षक की हत्या के लिए उस समय माओवादियों
की केंद्रीय कमेटी बदनाम भी हुई थी। यही कारण था कि तत्काली नक्सली कमांडर बीरम राव
की जगह नए कमांडर संजीवन रेड्डी को नियुक्त किया गया था। “संजीवन
रेड्डी के कड़े आदेश थे कि किसी भी टीचर, सामाजिक कार्यकर्ता और हेल्थ वर्कर को बिल्कुल
परेशान ना किया जाए।“13 माओवादियों
को पता चलता है कि भीमे सामाजिक कार्यों में भी जोड़ी हुई है और उसे छोड़ने में कोई खतरा
नहीं है, लेकिन मारने पर पार्टी के बदनामी जरूर हो सकती है। आखिर में बाहर किसी को
कुछ भी ना बताने की सख्त हिदायत देकर भीमे और उसकी सहेली सुरी को छोड़ दिया जाता है।
जाते-जाते भीमे संजीवन रेड्डी से मिलने की इच्छा व्यक्त करती है।
कई दिनों के इंतजार के बाद आखिरकार भीमे को संजीवन
रेड्डी से मिलने का अवसर मिला। अपेक्षा विपरीत भीमे के साथ मित्रवत व्यवहार किया गया।
संजीवन से मिलने के बाद भीमे ने हिंसा को गलत ठहराते हुए जन अदालत के नाम पर नक्सलियों
की मनमानी का विरोध किया। भीम के जवाब में संजीवन अपना तर्क प्रस्तुत करता है- “यहां हमारी सरकार है। जनता की सरकार। उद्योगपतियों,
ब्यूरोक्रेट और बुर्जुआ धनपतियों के लिए काम करने वाली सरकार से लड़ रहे हम... और ये
सब कैसे करना है ये पार्टी तय करेगी।“14
संजीवन रेड्डी को भीमे का महिला जागरूकता कार्यक्रम पसंद आया था। वह भीमे के निर्दोष
पिता की हत्या और पार्टी की भूल को भी स्वीकार करता है। भीमे को गांव में प्रचार करते
हुए बच्चों को स्कूल भेजने की हिदायत देता है, और इसके लिए नक्सल नेटवर्क का उपयोग
करने को कहता है। जवाब में भीमे तर्क देती है - “दादा
में मां-बाप से कह रही हूं कि अपने बच्चों को स्कूल भेजो और उससे क्रांति होगी। आप
मुझसे कह रहे हैं की क्रांति की तैयारी करो। आपकी सोच मेरी सोच से अलग लगती है क्योंकि
मैं पढ़ाई से क्रांति की बात कर रही हूं और आप क्रांति लाकर स्कूल खोलना चाहते हैं।“15 दोनों की सोच लगभग एक समान थी लेकिन
तरीके बहुत अलग। भीमे हिंसा के सर्वथा खिलाफ थी। संजीवन रेड्डी समझ गया था कि भीमे
उसका साथ कभी नहीं देगी। अंत में वह भीमे को हिदायत देकर छोड़ देता है कि भविष्य में
कभी भी उसकी राह में बाधा नहीं डालेगी।
साल 2005 में बस्तर क्षेत्र के बीजापुर जिले
से शुरू होकर सलवा जुड़ुम अभियान दक्षिण बस्तर के अनेक क्षेत्र में आगे की तरह फैल रहा
था। नक्सलियों के मनमानी से तंग आकर स्थानीय बस्तर वासियों ने भूतपूर्व कांग्रेसी नेता
महेंद्र कर्मा के नेतृत्व में ’नक्सली भगाओ, बस्तर बचाओ’ का नारा लगाना शुरू कर दिया
था।
उन दिनों रायपुर से निकलने वाले एक समाचार पत्र
का पत्रकार अभीक बनर्जी लगातार बस्तर को कवर किया हुआ था। उसने अपने अखबार की हेडलाइन
भी बनाई थी- “बस्तर
के खूनी संघर्ष में फंसे आदिवासी, माओवादियों के खिलाफ अभियान सवालों के घेरे में“।16 अभीक बनर्जी एक निर्भीक पत्रकार था।
एक तरफ उसने जहां माओवादियों की मनमानी का वर्णन किया तो दूसरी तरफ सलवा जुड़ुम के नाम
पर पुलिसिया अत्याचार की भी पोल खोल दी। “बनर्जी
की खबरों को पढ़ने से साफ था कि बस्तर की लड़ाई में आम आदिवासी पिस रहा है। इनमें से
कोई खबरों की सच्चाई के बारे में पता लगाना बहुत कठिन था। यह घटनाएं मीलों दूर बसे
गांव में हो रही थी। हर जगह पहुंचना आसान नहीं था। खासतौर से माओवादियों का पक्ष जानना
बेहद कठिन था क्योंकि इस माहौल में उनके पास जाना मुमकिन नहीं हो पाता।“17 इस बीच राज्य सरकार ने ’जनसुरक्षा अधिनियम’
नामक एक नया कानून पास कर दिया, जिसके तहत
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों क्षेत्राधिकार अत्यंत सिमट कर रह गया। सीपीआई
(माओवादी) ने एक पर्चा जारी किया जिसमें लिखा था- “पुलिस
बेगुनाहों को मार रही है लेकिन मीडिया चुप है क्योंकि वह कॉर्पोरेट घराना और सरकार
का दलाल बन चुका है। वह बिका हुआ है और कभी जनयुद्ध कर रहे गरीब आदिवासियों का पक्ष
नहीं दिखाता।“18
सलवा जुड़ुम का तांडव दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था।
उन्होंने भीमे के पूरे गांव को न केवल जलाया बल्कि सुरी का बलात्कार भी किया। उन्होंने
भीमे के प्रेमी रामदेव को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। सदैव अहिंसा पर करने वाली भीमे
के विश्वास को आज सलवा जुड़ुम के कार्यकर्ताओं ने तोड़ दिया था। “इस तकलीफ में भीमें के दिल में आज अपने
देश और इसकी लोकशाही को लेकर सवाल खड़े होने लगे। वह सोच रही थी कि अपने ही देश में
और अपने ही गांव में वह कितनी अकेली है। उसके पिता ने उसे आजादी का फलसफा सिखाया और
निडर होने को कहा था। लेकिन यहां उसका गला घोट वाला कोई और नहीं, उसके अपने लोग थे।
बस्तर के लोग। उसके अपने साथी। अपने आदिवासी।“19
पुलिस इंस्पेक्टर शुक्ला ने भीमे के प्रेमी रामदेव
को बुरी तरह पीटा बल्कि उसके सामने ही उसकी प्रेमिका भीमे के साथ बलात्कार भी किया।
इस भयावह घटना के बाद भीमे का शरीर ही नहीं बल्कि आत्मा भी आहत हुई थी। विवेकशील भीमे
अभी प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं थी, अभी तक वह सदमे से उबरी नहीं थी। रामदेव
बदले की आग में जल रहा था। वह अपनी प्रेयसी भीमे के बलात्कारी पुलिस अफसर शुक्ला से
बदला लेना चाहता था। अहिंसक विचारधारा वाली भीमे की प्रेमी रामदेव को नक्सलवादी विचारधारा
ने कब आकर्षित कर लिया, वह उसे पता ही नहीं चला। माओवादियों के साथ वह गोली चलाने,
एंबुश लगाने जैसे कार्यों का लगातार अभ्यास करने लगा। इस दौरान उसने कई पुलिस वालों
की मुठभेड़ में हत्या की। इंस्पेक्टर शुक्ला के साथी को भी उसने मार गिराया। रामदेव
को लगा कि ऐसा करने पर भीमे खुश होगी लेकिन अपेक्षा के विपरीत भीमे की प्रतिक्रिया
अपेक्षा के विपरीत रही। “थोड़ी
देर तक दोनों ओर चुप्पी रही। रामदेव समझ गया कि फोन की दूसरी ओर भीमे सुबक रही है।
अचानक उसे लगा कि जो कुछ उसने किया उससे भीमे खुश नहीं बल्कि उसे बड़ा दुख हुआ है। रामदेव
जानता था कि भीमे उसे कितना प्यार करती है। उसे यह भी पता था कि उसके बिना वह कितना
अकेला महसूस कर रही होगी।“20
ब्लाॉगर चारु तिवार की टिप्पणी है - “यह उपन्यास बस्तर की पूरी त्रासदी को जंग
की खिचीं लकीरों के बीच एक ऐसी युवती की प्रेम कहानी के माध्यम से बताता है जो नक्सलवादियों
और पुलिस के बीच जनसरोकारों का एक बड़ा फलक तैयार करती है। आदिवासी युवती भीमे और उसका
प्रेमी रामदेव आदिवासियों के हकों की लड़ाई के प्रतीक हैं। इन दो महत्वपूर्ण किरदारों
के आलोक में हम बस्तर की उन अन्तर्कथाओं तक पहुंच जाते हैं जो कभी बाहर नहीं आ पातीं।
जबकि वे ही बस्तर की सच्चाई हैं।“21
उपन्यास के पश्च पृष्ठ पर प्रसिद्ध पत्रिकार
रवीश कुमार की टिप्पणी उल्लेखनीय है। “लाल
लकीर हृदयेश जोशी की कलम से निकली ऐसी रचना है जिसे पढ़ते हुए आप बस्तर में बड़े होने
लगते हैं। गंगा और राजू की तरह पुलिस से भागते हुए गोलियों के शिकार हो जाते हैं। हेड़िया
कुंजाम की तरह मारे जाते हैं और भीमे की तरह रामदेव से प्रेम करने लगते हैं। आप बस्तर
नहीं गए होंगे। ’लाल लकीर’ आपको बस्तर ले जाती है। किताब की शक्ल में एक फिल्म है लाल
लकीर। इतनी गहरी खिंच गई है कि इसके आर पर नक्सली और पुलिस एक जैसे लगते हैं। इसे पढ़िएगा
जरूर। बस्तर हो आएंगे।“22
संदर्भ
सूची -
1. सिंह,
राकेश कुमार. नक्सलवाद और पुलिस की भूमिका. नई दिल्ली : पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो,
प्रथम संस्करण, 2012, पृष्ठ संख्या 11
2. सिंह,
बच्चन. हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास. नवीन शाहदरा दिल्लीः राधाकृष्ण प्रकाशन, बारहवाँ
संस्करण, 2021, पृष्ठ संख्या 452
3. जोशी,
हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण, 2016, पृष्ठ
संख्या 16
4. जोशी,
हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण, 2016, पृष्ठ
संख्या 17
5. जोशी,
हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण, 2016, पृष्ठ
संख्या 25
6. जोशी,
हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण, 2016, पृष्ठ
संख्या 35
7. जोशी,
हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण, 2016, पृष्ठ
संख्या 39
8. जोशी,
हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण, 2016, पृष्ठ
संख्या 49
9. जोशी,
हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण, 2016, पृष्ठ
संख्या 49
10.
जोशी, हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण,
2016, पृष्ठ संख्या 56
11.
जोशी, हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण,
2016, पृष्ठ संख्या 72
12.
जोशी, हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण,
2016, पृष्ठ संख्या 82
13.
जोशी, हृदयेश. लाल लकीर. उत्तर प्रदेश : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण,
2016, पृष्ठ संख्या 90
14.
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2016, पृष्ठ संख्या 100
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2016, पृष्ठ संख्या 102
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2016, पृष्ठ संख्या 115
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2016, पृष्ठ संख्या 230
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