Sahitya Samhita

Sahitya Samhita Journal ISSN 2454-2695

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सत्ता, साहित्य और दिल्ली

 कार्तिक मोहन डोगरा

 

 

कहा जाता हैजो स्वभाव से अच्छे हैवह अच्छे ही रहेंगेचाहे कुछ भी पढ़ें  जो स्वभाव के बुरे हैंवह बुरे ही रहेंगेचाहे कुछ भी पढ़े | इस कथन मेसत्य की मात्रा बहुत कम है | इसे सत्य मान लेना मानव चरित्र को बदल लेना होगा। जो सुन्दर हैउसकी ओर मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है।हम कितने ही पतित हो जायॅ पर असुन्दर की ओर हमारा आकर्षण नहीं हो सकता  हम कर्म चाहे कितने बुरे करे पर यह असम्भव है कि करुणा औरदया और प्रेम और भक्ति का हमारे दिलो पर असर  हो  नादिरशाह से ज्यादा निर्दयी मनुष्य औरकौन हो सकता है - हमारा आशय दिल्ली मेकत्लेआम करानेवाले नादिरशाह से है। अगर दिल्ली का कत्लेआम  सत्य घटना हैतो नादिरशाह के निर्दय होने में कोई सन्देह नही रहता। उस समयआपको मालूम हैकिस बात से प्रभावित होकर उसने कत्लेआम  को बन्द करने का हुक्म दिया था  दिल्ली के बादशाह का वजीर एक रसिक मनुष्य था जब उसने देखा कि नादिरशाह का क्रोध किसी तरह नही शान्त होता और दिल्लीवालो के खून की नदी बहती चली जाती हैयहाँ तक कि खुदनादिरशाह के मुँहलगे अफसर भी उसके सामने आने का साहस नहीं करतेतो वह हथेलियो पर जान रखकर नादिर

 

शाह के पास पहुॅचा और यह शेर पढ़ा 'कसे  मॉद कि दीगर  तेगे नाज़ कुशी 

 

मगर कि जिन्दा कुनी खल्क रा  बाज़ कुशी इसका अर्थ यह है कि तेरे प्रेम की तलवार ने अब किसी  जिन्दा  छोडा | अब तो तेरे लिए इसकेसिवा और कोई उपाय नहीं है कि तू मुर्दों को फिर जिला दे और फिर उन्हें मारना शुरू करे  यह फारसी के एक प्रसिद्ध कवि का शृङ्गार-विषयक शेर हैपर इसे सुनकर कातिल के दिल मे मनुष्य जाग उठा  इस शेर ने उसके हृदय के कोमल भाग को स्पर्श कर दिया और कतलाम तुरन्त बन्द करा दियागया  1

 

इस कहानी को पढ़ते हुए एक बात स्पष्ट नजर आती है ।सत्ता साहित्य और शहर का संबंध साफ नजर आता है। इस निबंध में हम इसी संबंध को , दिल्ली को साहित्य में कैसे समझा गया है इस पर विचार करते हुए ।दिल्लीसत्ता और साहित्य के आपसी संबंध की तलाश करेंगे।

 

हम साहित्य पर बढ़े,उस से पहले प्रेमचंद जी ने सत्ता और साहित्य का रिश्ता व्यक्त किया है। उस पर नजर डाल लेते हैं।

 

साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरञ्जन का सामान जुटाना नहीं है - उसका दरजा इतना  गिराइये  वह देश भक्ति राजनीति केपीछे चलनेवाली सचाई भी नहींबल्कि उनके अगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाला सचाई है 2

 

आप कहेंगे कि साहित्य राजाओं की प्रशंसा करता आया है ।उनमें राज दरबार के साहित्यकार नहीं थे ,वह बादशाह के मनोरंजक थे इसका भेद बजरंगबिहारी तिवारी जी ने अपने लेख साहित्य और राजसत्ता में स्पष्ट कर दिया है। मैं कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं।

 

प्राचीनकाल से कवियों का एक ठिकाना राजसभा भी रही है। राजसभा में जाने का अर्थ यह नहीं था कि कवि राजा का चरित लिखेगाउसकी प्रशस्तिकरेगा और उसके अपकर्मों का औचित्य जुटाएगा। जो ऐसा करते थे उनके लिए एक भिन्न कोटि बनाई गई। इन्हें चारणभाटविरुदावलीगायक आदिकहते हैं। भाटों का लिखा हुआ उत्तम कोटि के साहित्य में कभी नहीं गिना गया। काव्य विवेचन के प्रसंग में काव्यशास्त्रियों ने विरुदगायकों की रचनाओंको उद्धृत करने से परहेज किया। इस मत पर भी पुराने कवियों में आम सहमति-सी रही कि वे आश्रयदाता राजाओं पर नहीं लिखेंगे। सातवीं शताब्दी केगद्यकार बाणभट्ट ने ‘हर्षचरित’ लिख कर यह लकीर तोड़ी। लेकिन उल्लेखनीय यह है कि बाण ने इस किताब के शुरू के तीन अध्यायों में आत्मचरितलिखा। समूची किताब में उन्होंने कहीं भी कवि को राजा से कमतर नहीं रखा। सम्राट हर्ष से पहली ही मुलाकात में उन्होंने उन्हें जिस तरह कड़ा प्रत्युत्तरदिया वह भारतीय कविता के इतिहास का बड़ा गर्वोन्नत प्रसंग है। कवि और राजा की बराबरी के संबंध में बाण के परवर्ती राजशेखर का कहना था किजितनी जरूरत कवि को राजा की होती है उतनी ही जरूरत राजा को कवि की। काव्यादर्शकार दंडी तो राजा की गरज को पहले रखते हैंयशाकांक्षीराजा कवि का मुखापेक्षी होता है।

राजसत्ता और राजा से निकटता लेखनी को प्रभावित  करेकविगण इस संदर्भ में बहुत सजग रहे हैं। कर्तव्यविरत और राजमद में डूबे नरेशों कोफटकारने में भी वे नहीं चूके हैं। चंदबरदाई ने पृथ्वीराज से कहा था- ‘गोरी रत्तउ तुव धरातू गोरी अनुरत्त।’- मोहम्मद गोरी तुम्हारी धरती पर नजर गड़ाएहुए है और तू अपनी गोरी (संयोगितामें अनुरक्त हैनरपति नाल्ह ने राजा बीसलदेव के बड़बोलेपनअस्थिरचित्त को बखूबी उभारा। नववधू राजमहिषीराजमती के जरिए कवि ने राजमहल में व्याप्त घुटन को वाणी दी।3

 

इस संबंध को मैथिलीशरण गुप्त ने बहुत खूब लिखा अपनी किताब भारत भारतीय में

 

"जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।

सो नृप अवसि नरक अधिकारी।’ 

अबराजा अपने आप तो नरक जाना नहीं चाहेगा। यह जिम्मेदारी दुखी लोगों की है। क्या तुलसी विप्लव का संकेत कर रहे हैंशायद हांक्योंकिउनके पूर्ववर्ती ऐसी राह बना चुके हैं।"4

 

इसके बाद साहित्य और शहर पर एक विचार करते हैं। प्रेमचंद अपने लेख में बहुत अच्छी टिप्पणीजीवन और साहित्य पर करते हैं। अगर हम यह सोचेकि जीवन शहर का हो तो शायद एक संबंध नजर आएगा।

 

साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती हैउसकी अटारियोंमीनार और गुम्बद बनते है ; लेकिन बुनियाद मिट्टी केनीचे दबी पड़ी है। उसे देखने को भी जी नहीं चाहेगा। जीवन परमात्मा की सृष्टि हैइसलिए अनन्त हैअबोध हैम्य है  साहित्य मनुष्य की सृष्टि हैइसलिए सुबोध हैसुगम है और मर्यादाओं से परिमित है।5

 

इस टिप्पणी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि साहित्य अपने आप में शहर में बीते जीवन को सरल बनाता है पर क्या यह बात दिल्ली जैसे शहरके लिए सत्य है आइए इसकी पड़ताल करते हैं।

 

दिल्ली पे रोना आता है करता हूँ जब निगाह

मैं उस कुहन ख़राबे की तामीर की तरफ़

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

 

 'मुसहफ़ीशायर नहीं पूरब में हुआ मैं

दिल्ली में भी चोरी मिरा दीवान गया था

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

 

 

मुसाफिर के इन शेरों को देखें तो दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि यह दिल्ली कोई नई दिल्ली है जो रात सत्ता का केंद्र नहीं है। मुसाफिर का रोनाआता है,जब वह उस  पुरानी खराब , तबहा दिल्ली को देखते हैं। जो कभी रात सत्ता का केंद्र हुआ करती थी। दिल्ली कई बार उजड़ी फिर बसी और हरबार उसके भीतर का इरादा बदला ,लोगतहजीबइत्यादि बदले पर दिल्ली कुछ ना कुछ साथ लेती गई। पर मुसाफिर की नई दिल्ली चोर है।

हम इस निबंध में शेर को पढ़ने के मुहावरे पर कम बात करेंगे  पर एक बार उर्दू लिपि का जिक्र कर लेते हैं उसमें दिल्ली और दिल  एक ही तरह सेलिखे जाते हैं तो उनको पढ़ा भी जा सकता है। तो शेरों के कई मायने हो जाएंगे और यह लेख निबंध से किताब बन जाएगा। इस लिपि के खो जाने सेशेरों के लिए इतने मायने आधुनिक काल के साहित्य में खो जाते हैं।

 

दिल्ली के बीच हाए अकेले मरेंगे हम

तुम आगरे चले हो सजन क्या करेंगे हम

आबरू शाह मुबारक

 

दिल्ली के  थे कूचे औराक़--मुसव्वर थे

जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई

मीर तक़ी मीर

 

इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र--सुख़न

कौन जाए 'ज़ौक़पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

 

तीनों शायर कुछ एक तरह की बात करते हैं कुछ भी हो दिल्ली नहीं छोड़नी ,चाहे आशिक या सत्ता शक्ति का केंद्र दिल्ली से दूर हो जाए हम दिल्ली मेंही रहेंगे। यहां से दूर नहीं जाएंगे। दिल्ली का एक स्थिर चरित्र याद  आता है। मीर के शेर को पढ़ने के बाद कि यहां के लोग और गलियां शांत एक सीहो गई है जैसे सत्ता दूर जाने से कोई गम चारों तरफ फैल गया हो या ज़ौक के शेर में जैसा गम है ।शेरों के वक्त में फर्क हैपरएहसास वैसा ही है ,परकारण साफ हो  हो गया है। कि दिल्ली छोड़कर क्यों नहीं जाना। दिल्ली शांत क्यों है मीर के शेर में यह ज़ौक का शेर कहीं ना कहीं बयान करता है।

 

 क्या 'मीरतू रोता है पामाली--दिल ही को

उन लौंडों ने तो दिल्ली सब सर पे उठा ली है

मीर तक़ी मीर

 

अमीर-ज़ादों से दिल्ली के मिल  ता-मक़्दूर

कि हम फ़क़ीर हुए हैं इन्हीं की दौलत से

मीर तक़ी मीर

 

इन दोनों शेर में हम लौंडो या अमीर के लौंडो की बर्बादी या बुराई देख सकते हैं। यह उन्होंने दिल्ली को किस तरह बर्बाद कर रखा है कि यहां के लौंडेबड़े बदतमीज है ।इसी के साथ एक फैक्टर बड़ा दिलचस्प है कि यहां समलैंगिकता इश्क भी मौजूद था परंतु पैसे वाले लोग हमेशा सत्ता के करीब होतेहैं तो शायद उन्होंने गरीबों को दिल्ली जैसे शहर में परेशान कर रखा है ।यह मतलब भी इन शेरों से समझा जा सकता है।

 

पगड़ी अपनी यहाँ सँभाल चलो

और बस्ती  हो ये दिल्ली है

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

 

दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें

था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज--तख़्त का

मीर तक़ी मीर

 

इन दोनों शेर का मतलब कहीं ना कहीं आसपास का है। यहां आबरू बड़ी चीज है और वक्त ऐसा है कि तख्त और पगड़ी ,जोइज्जत का प्रतीक है शायद दोनों कहीं ना कहीं वक्त बदलने की तस्वीर है। एक बात और ध्यान देने योग्य है दिल्ली शहर की तरह है बस्ती की तरह नहीं जहाँ सत्ता किइज्जत है और किसी बात की नहीं। एक बात और ध्यान देने योग्य ,यहां नजर आती है कि कहीं ना कहीं वक्त बदल रहा है इसीलिए चाहे वह अमीरकी पगड़ी हो या बादशाह के सर का ताज हो। दोनों के दोनों अपनी शक्ति खोने के निशान पर है।

 

 वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से

दिल्ली 'ज़फ़रके हाथ से पल में निकल गई

बहादुर शाह ज़फ़र

 

 

यह शेर एक ऐसे वक्त दर्शाता है जो दिल्ली में बदलाव की बात है। यह विद्रोह अट्ठारह सौ सत्तावन का शेर है ।जहां बहादुर शाह जफर जैसा बादशाहखुद लिख देता है कि मेरे हाथ से दिल्ली फिसल गई और यह बदलाव साहित्य में साफ नजर आता है। गालिब इसको अपने दसतंबू में साफ लिखते हैंया अपनी शायरी में साफ दर्शाते हैं। वक्त के साहित्य को कम पढे तो दिल्ली सत्ता का केंद्र साफ नजर आती है इसका कारण साफ है क्योंकि शायदजो मुगल साम्राज्य समाप्त होने से बच सकता था ।वह यहां मौजूद था ।जिसका शासन पूरे भारत पर एक समय में हुआ करता था। साथ में विद्रोही भीइस तरफ देख रहे हैं और ब्रिटिश साम्राज्य भी इसका पतन कर इस पर कब्जा करना चाहता है क्योंकि आखरी मुगल बादशाह जो अधिकतर भारत परराज किया करता था। यहां पर विराजमान है।  इस पर कब्जा कर लेंगे तो शायद  पूरे देश की सत्ता पर कब्जा कर लेंगे और इसी के चलते हम दिल्लीको एक सत्ता के केंद्र में देखते हुए आते हैं। इस से गालिब को बहुत बुरी तरह ठेस पहुंचाई थी पर गालिब विद्रोह से पहले दिल्ली को कुछ इस तरहदेखते थे।

 

गर मुसीबत थी तो ग़ुर्बत में उठा लेता 'असद'

मेरी दिल्ली ही में होनी थी ये ख़्वारी हाए हाए

मिर्ज़ा ग़ालिब

 

है अब इस मामूरे में क़हत--ग़म--उल्फ़त 'असद'

हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या

मिर्ज़ा ग़ालिब

 

कहीं ना कहीं दिल्ली एक बर्बाद हो रही जगह है। गालिब दिल्ली में तो है पर यहां ठिकाना जमा पानारोजी रोटी का बंदोबस्त कर पाना मुश्किल है।पर दसतंबू में बदलती हुई राज सत्ता साफ नजर आती है। और ग़ालिब अपनी इसी किताब में दिल्ली के बदलते हुए नक्शे को हमारे सामने रख देते हैं।उनका एक मशहूर शेर है जो नीचे दिया गया है

 

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र

काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

मिर्ज़ा ग़ालिब

 

इस शहर में साफ सत्ता मुगल और अंग्रेजों के बीच बदलाव नजर आता है  मतलब इस्लामिक या मुगल राज्य पहले की बात है  यह नई बातईसाईराज्य की है। गालिब दसतंबू में भी ऐसी कई टिप्पणी करते नजर आते हैं। गालिब की दिल्ली बदलाव की दिल्ली है जो शायद भाषा के स्तर पर भीनजर आती है।

 

तर्ज - -बेदिल में केहना रेखता

असदउल्लाह ख़ान कयामत है

मिर्ज़ा ग़ालिब

 

फारसी में गालिब शेर कहना चाहते हैं पर कह नहीं पा रहे क्योंकि अब सत्ता की जबान बदल रही है। एक जुबान अभी भी सत्ता की है। गालिब बड़ीदुविधा में फंसे हैं। इन दो नावों में सवार होकर। असल में मुगल बादशाह की फारसी जबान में भी शेर कहना चाहते हैं पर बदलते समय में जो ईसाईसत्ता मतलब ब्रिटिश सत्ता  रही है उसकी जबान उर्दू है तो यह कश्मकश गालिब के साहित्य में साफ नजर आती है खासतौर पर ऊपर वाले शेर में।  दसतंबू पढ़ते हुए एक बड़ी दिलचस्प बात समझ आती है अब अंग्रेजविद्रोही ,दिल्ली का बादशाह सब दिल्ली पर कब्जा चाहते हैं। तो इसका कारणस्पष्ट नजर आता हुआ भी नजर आता है ,कि दिल्ली सत्ता है जो इस पर राज करेगा वह देश पर राज कर सकता है क्योंकि बाकी देश दिल्ली को एकसत्ता के नजरिए से देखता है। गालिब की दिल्ली विद्रोह वाली बर्बाद दिल्ली है ,और ,शायद इसलिए कि वह ब्रिटिश साम्राज्य की पेंशन पर जिंदा थे।पर इसी विद्रोह के साथ शायद आधुनिकता की भी शुरुआत हुई जो कई लोग मानते हैं।

 

कभी  इल्म  हुनर घर था तुम्हारा दिल्ली

हम को भूले हो तो घर भूल  जाना हरगिज़

अल्ताफ़ हुसैन हाली

 

दिल्ली छुटी थी पहले अब लखनऊ भी छोड़ें

दो शहर थे ये अपने दोनों तबाह निकले

मिर्ज़ा हादी रुस्वा

 

कहीं ना कहीं इस आधुनिकता को सत्ता का केंद्र दिल्ली से दूर नजर आता है ।इन दोनों शेरों पर गौर करें तो शायद यह कोलकाता की तरफ इशारा कररहे हैं कि दिल्ली जो इतनी आबादशक्ति का केंद्र नजर आती थी शायद सत्ता के केंद्र के बदलाव के चक्कर में वीरान  नजर आती है। पर ,जैसे हमआगे बढ़ते हैं तो साहित्य दिल्ली और सत्ता का सबसे बड़ा नुकसान विभाजन के समय नजर आने लगता है। शेरों को पढ़ते टाइम थोड़ा सा ऐसा महसूसहोता है कि दिल्ली से सत्ता का दर्जा थोड़े समय के लिए छीन लिया गया और वह कहीं और चली गई पर लोगों ने दिल्ली को सत्ता की तरह ही हमेशादेखा।

 दिल्ली ने जो विभाजन से सत्ता का केंद्र बनने की सत्ता का केंद्र होने के कारण जो नुकसान उठाएं वह साफ उर्दू शायरी में नजर आते हैं ।मैं नीचे कुछशेर उद्धृत कर रहा हूं और फिर उन पर बात करते हैं।

 

गली गली आबाद थी जिन से कहाँ गए वो लोग

दिल्ली अब के ऐसी उजड़ी घर घर फैला सोग

नासिर काज़मी

 

चेहरे पे सारे शहर के गर्द--मलाल है

जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

 

दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है

जो भी गुज़रा है उस ने लूटा है

बशीर बद्र

 

दिखाया एक ही दिल्ली ने क्या क्या

बुरा हो अब तो दो दो दिल्लियाँ हैं

मोहम्मद अल्वी

 

शेरों में विभाजन का दर्द साफ नजर आता है ।इस दर्द में सत्ता को कम कोसा गया है। यहां जनता का भोगा हुआ दर्द साफ नजर आता है। जब नासिरकाज़मी यह कहते हैं कि यह दिल्ली अब उजड़ गई है मतलब यहां रहने वाले लोग कहीं गए हैं या कहिए कि स्थाई रूप से कहीं चले गए हैं ।वहांशायद जिस जगह का नाम पाकिस्तान है ,वह दर्द कि हमें अब दो राष्ट्र हैं एक की जगहयह मलाल मंजूर अहमद के शेर में साफ नजर आता है औरबशीर बद्र इस दर्द को दुगना कर देते हैं। यह कहकर कि सत्ता से जो गया और दिल्ली साथ लेकर गया। उसको लूट के ही गया है। वह चाहे पाकिस्तानजाने वाले लोगों का गदर हो या ब्रिटिश साम्राज्य ।इस विभाजन ने दो दिल्ली कर दी अब उनको ज्यादा कष्ट होगा एक पुरानी दिल्ली और दूसरी नईदिल्ली और इन दोनों में अपनी-अपनी सत्ता है। बस एक बात ,एक सी है ,एक लोकतांत्रिक होते हुए भी लुटती है। दूसरी पहले थी पर लूटती थी ।इसशेर की जमीन की कविता रामधारी सिंह दिनकर ने बहुत सारी लिखी है। उनकी एक कविता ‘भारत का यह  रेशमी नगर’ कविता की दिल्ली कैसी है।

 

ऐसा टूटेगा मोहएक दिन के भीतरइस राग-रंग की पूरी बर्बादी होगी,
जब तक  देश के घर-घर में रेशम होगातब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी।6

 

यह दो पंक्तियां इस एक लंबी कविता के अंत की दो पंक्तियां हैं पर पूरी कविता में दिनकर जी सत्ता का केंद्र दिल्ली को देखते हैं। इसकी बस्तियांदेखना भूल जाते हैं वह अलग बात है पर दिल्ली को एक जालिम शासक के रूप में याद करते हैं। जो सत्ता पाकर मदमस्त हो गया है स्वराज के किएवादे भूल गया और अपने रेशम में उलझ कर बाकी देश की गरीबी ,तकलीफ ,संघर्ष ,2 जून की रोटीको भूल गया। दिनकर जी ने दिल्ली को कईकविताओं में एक मदमस्त  सत्ता या  शक्ति केंद्र के रूप में याद किया है। खासकर आजादी के बाद की लोकतांत्रिक सरकार को।

 

आधुनिक साहित्य में दिल्ली या किसी भी शहर को एक विषाद के रूप में याद किया गया है। ऐसे कई शेर और नज्में है। आइए एक नजर उन पर भीडाल देते हैं।

 

दिल्ली बहुत हसीन है दिलकश है लखनऊ

लेकिन ये और ही है हमारे दकन की बात

बानो ताहिरा सईद

 

हम तो रह के दिल्ली में ढूँडते हैं दिल्ली को

पूछिए 'रविशकिस से क्या यही वो बस्ती है

रविश सिद्दीक़ी

 

रविश का विचार दिल्ली का है , वह एक विचार है , एक खास छवि जो उन्होंने खुद बनाई है। तो जब लौट के आए हैं वह वापस दिल्ली तो वह अपनीछवि के दिल्ली को ढूंढ रहे हैं पर वह मिलेगी कहां और रवीश ही उस दिल्ली को केवल जानते हैं तो वह पूछे किससे।

 

सैयद भी कुछ इसी तरह के ख्याल पर बात करते हैं कि दिल्ली की छवि है हमारे दिमाग में  दिल्ली और लखनऊ से हमारा दक्कन ज्यादा बेहतर है तोयह बात हम मान सकते हैं कि वह दिल्ली देखकर दक्कन गए हो या दक्कन से दिल्ली आए हो उनको दिल्ली से ज्यादा बेहतर दक्कन लगता है क्योंकिउनके ख्याल में दक्कन ज्यादा बेहतर शहर है क्योंकि दिल्ली सत्ता का केंद्र हर सत्ता को  ज्यादातर साहित्यकार अच्छा नहीं मानते।

 

घराना है हमारा 'दाग़का हम दिल्ली वाले हैं

ज़माने में मुसल्लम 'ख़ारअपनी ख़ुश-बयानी है

ख़ार देहलवी

 

होते वहाँ जो 'दाग़तो दिल्ली भी देखते

अब क्या करेंगे जा के उस उजड़े दयार में

सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

 

जब हम साहित्य की बात करते हैं तो शायद हर शहर शायरों और कवियों पर अपना कब्जा जमाता है। इस विषाद के कारण ही मेरे ख्याल से सरदारगेंडा सिंह और खार देहलवी इसी विषाद को याद करते हैं और दाग का कब्जा बताते हैं। सरदार गेंडा सिंह के शेर पर जरा सा सत्ता रख दें ,तो ,एकअलग ही अर्थ सामने आता है जो है कि   अब बस दिल्ली में सत्ता है ।हम क्या करें उस दिल्ली जाकर जहां साहित्य ही नहीं बसता। सत्ता क्योंकिहमेशा साहित्य को दफनाने में लगी रहती है खार के शेर में भी कुछ ऐसा अर्थ छुपा है कि हम तो ‘दाग’ मतलब साहित्य के घराने के हैं पर यह सत्ताहमारी बुराई पूरे जमाने में करती रहेती है।

 

कौन दिल्ली से मसीहा लाएगा

 दिल--बीमार दिल्ली दूर है

ख़ालिद महमूद

 

यहां एक अलग विषाद नजर आता है कि दिल्ली में बहुत अच्छा मसीहा मिलता है पर जैसे गयासुद्दीन के लिए दिल्ली दूर थी वैसे ही यह दिल्ली दूर है।अभी इंतजार करना पड़ेगा मरने तक। तब भी शायद दिल्ली नसीब ना हो। इस शेर को पढ़कर एक गजब की बात याद आई दिल्ली शायद शुरू से सत्ताऔर फकीरों के अल्हड़ पन का केंद्र रही है ,तो ,तुगलक और निजामुद्दीन औलिया का किस्सा कीआपस में मजदूरों को लेकर भिड़ंत और शहंशाह नेताकत का सहारा लेकर सारे शहर के मजदूर अपने पास बुलाए पर उन्हें लड़ाई पर जाना पड़ा और कुछ मजदूर आलिया ने अपने कुआं खुदवाने में लगवादिए। जब यह बात तुगलक को पता चली तो वह आग बबूला हो कर बोला कि तुम्हें मैं दिल्ली आकर देख लूंगा। निजामुद्दीन ने कहा दिल्ली अभी दूरहै और दिल्ली घुसने से पहले उनके बेटे मोहम्मद बिन तुगलक ने जो शामियाना लगाया था वह कमजोर था और कुछ हाथियों के वहां से गुजरने से ,वहतुगलक के ऊपर गिर गया। ऐसे ही किसी किससे पर केदारनाथ सिंह ने 4 पंक्तियों की कविता लिखी है।

 

संतन को कहा सीकरी सों काम 
सदियों पुरानी एक छोटी-सी पंक्ति
और इसमें इतना ताप
कि लगभग पांच सौ वर्षों से हिला रही है हिन्‍दी को

केदारनाथ सिंह

 

शायद यह पंक्तियां साहित्यसत्ता और शहर के आस-पास हो रही हर बात को स्पष्ट कर देती है असल में प्रेमचंद जी ने अपने एक लेख में बहुत खूबबात लिखी है जो यहां उद्धृत करनी बनती है।

 

साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है  जब कोई लहर देश मे उठती हैतो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव होजाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश बन्धुओं के कष्टो से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता मे वह रो उठता हैपर उसके रुदन में भीव्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है 7

 

इस भावना को शायद पंजाबी कवि संत रामदास जी ने अपनी कविता ‘दिल्ली यह दयाला वेख’8 बखूबी लिखा है। एक सत्ताएक शहरउस शहर केनिजाम या सत्ता की क्रूरता के विरुद्ध आवाज उठाता साहित्य। शायद पंजाबी साहित्य दिल्ली को हमेशा एक जालिम सत्ता के रूप में देखता आया है।इस बात को समझना आवश्यक है और शायद दिल्ली के बाहर से लिखा साहित्य दिल्ली को सत्ता ही समझता है जो इस कविता में स्पष्ट नजर आताहै।

 

अगर इस निबंध  को संक्षेप में समझे तो यह कहना गलत ना होगा कि साहित्य हमेशा सत्ता के विरोध या उसका मार्ग दर्शक बनकर खड़ा होता है। अगरआप यह बात समझ पाए कि दिल्ली एक लंबे समय से सत्ता का केंद्र बनने के कारण उसकी प्रायवाची बन गई है। खासकर 1857 के बाद या यहकहें आजादी के साथ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पर उससे पहले के साहित्य में दिल्ली की छवि कोई अच्छी नजर नहीं आती उसमें एक सत्ताका निशान नजर हमेशा से आता है। अगर इन तीनों के संबंध की बात करें तो शायद साहित्य में सत्ता जो है वह दिल्ली है। मतलब सत्ता का प्रतीकसाहित्य में दिल्ली बनकर रह गई है। इस पूरे लेख को एक शेर में कहना हो तो शम्स तबरेजी का शेर काफी होगा। जो सत्ता की क्रूरता ,दिल्ली सत्ता काकेंद्र होने के कारण क्या नुकसान उठाती है। और साहित्य उसको बयान करता हुआ।

 

जिस ने जी चाहा उसे लूट के पामाल किया

अपना दिल भी हमें दिल्ली सा नगर लगता है

शम्स तबरेज़ी

 

संदर्भ सूची

 

1.    प्रेमचंद ,साहित्य का उद्देश्य ,जीवन में साहित्य का स्थान ,हंस प्रकाशनइलाहाबाद,पृष्ठ संख्या-25-26

 

2.    प्रेमचंद ,साहित्य का उद्देश्य ,साहित्य का उद्देश्यहंस प्रकाशनइलाहाबाद,पृष्ठ संख्या-15

 

3.    बजरंग बिहारी तिवारीसाहित्य और राजसत्ताजनसत्ता, 21 जुलाई 2021

 

4.    बजरंग बिहारी तिवारीसाहित्य और राजसत्ताजनसत्ता, 21 जुलाई 2021

 

5.    प्रेमचंद ,साहित्य का उद्देश्य ,जीवन में साहित्य का स्थान ,हंस प्रकाशनइलाहाबाद,पृष्ठ संख्या-20

 

6.    भारत का यह रेशमी नगर

7.    रामधारी सिंह "दिनकर"

8.    दिल्ली फूलों में बसीओस-कण से भीगीदिल्ली सुहाग हैसुषमा हैरंगीनी है,
प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की मालादिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है।
बसजिधर उठाओ दृष्टिउधर रेशम केवलरेशम पर से क्षण भर को आंख  हटती है,
सच कहा एक भाई नेदिल्ली में तन पर रेशम से रुखड़ी चीज  कोई सटती है।
हो भी क्यों नहींकि दिल्ली के भीतर जानेयुग से कितनी सिदि्धयां समायी हैं।
सबका पहुंचा काल तभी जब से उन की आंखें रेशम पर बहुत अधिक ललचायी हैं।
रेशम से कोमल तारक्लांतियों के धागेहैं बंधे उन्हीं से अंग यहां आजादी के,
दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चिंत मगन रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के।
वेतनभोगिनीविलासमयी यह देवपुरीऊंघती कल्पनाओं से जिस का नाता है,
जिसको इसकी चिन्ता का भी अवकाश नहींखाते हैं जो वह अन्न कौन उपजाता है।
उद्यानों का यह नगर कहीं भी जा देखोइसमें कुम्हार का चाक  कोई चलता है,
मजदूर मिलें परमिलता कहीं किसान नहींफूलते फूलपरमक्का कहीं  फलता है।
क्या ताना है मोहक वितान मायापुर काबसफूल-फूलरेशम-रेशम फैलाया है,
लगता हैकोई स्वर्ग खमंडल से उड़करमदिरा में माता हुआ भूमि पर आया है।
येजो फूलों के चीरों में चमचमा रहींमधुमुखी इन्द्रजाया की सहचरियां होंगी,
येजो यौवन की धूम मचाये फिरती हैंभूतल पर भटकी हुई इन्द्रपरियां होंगी।
उभरे गुलाब से घटकर कोई फूल नहींनीचे कोई सौंदर्य  कसी जवानी से,
दिल्ली की सुषमाओं का कौन बखान करेकम नहीं कड़ी कोई भी स्वप्न कहानी से।
गंदगीगरीबीमैलेपन को दूर रखोशुद्धोदन के पहरेवाले चिल्लाते हैं,
है कपिलवस्तु पर फूलों का शृंगार पड़ारथ-समारूढ़ सिद्धार्थ घूमने जाते हैं।
सिद्धार्थ देख रम्यता रोज ही फिर आतेमन में कुत्सा का भाव नहींपरजगता है,
समझाये उनको कौननहीं भारत वैसा दिल्ली के दर्पण में जैसा वह लगता है।
भारत धूलों से भराआंसुओं से गीलाभारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहलपरभटक रहा है सारा देश अँधेरे में।
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालोंतुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने मेंतुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो?
असहाय किसानों की किस्मत को खेतों मेंकया जल मे बह जाते देखा है?
क्या खाएंगेयह सोच निराशा से पागलबेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं कोजिन की आभा पर धूल अभी तक छायी है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्यासाड़ी सही नहीं चढ़ पायी है।
पर तुम नगरों के लालअमीरों के पुतलेक्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देशकिन्तुहोकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?
चिन्ता हो भी क्यों तुम्हेंगांव के जलने सेदिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं।
धुलता  अश्रु-बुंदों से आंखों से काजलगालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं।
जलते हैं तो ये गांव देश के जला करेंआराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महलया आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोरदिल्लीलेकिनले रही लहर पुरवाई में।
है विकल देश सारा अभाव के तापों सेदिल्ली सुख से सोयी है नरम रजाई में।
क्या कुटिल व्यंग्यदीनता वेदना से अधीरआशा से जिनका नाम रात-दिन जपती है,
दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते, `कुछ और धरो धीरजकिस्मत अब छपती है।´
किस्मतें रोज छप रहींमगर जलधार कहांप्यासी हरियाली सूख रही है खेतों में,
निर्धन का धन पी रहे लोभ के प्रेत छिपेपानी विलीन होता जाता है रेतों में।
हिल रहा देश कुत्सा के जिन आघातों सेवे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं?
निर्माणों के प्रहरियोंतुम्हें ही चोरों के काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं?
तो होश करोदिल्ली के देवोहोश करोसब दिन तो यह मोहिनी  चलनेवाली है,
होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसेंमिट्टी फिर कोई आग उगलनेवाली है।
हों रहीं खड़ी सेनाएं फिर काली-काली मेंघों-से उभरे हुए नये गजराजों की,
फिर नये गरुड़ उड़ने को पांखें तोल रहेफिर झपट झेलनी होगी नूतन बाजों की।
वृद्धता भले बंध रहे रेशमी धागों सेसाबित इनकोपरनहीं जवानी छोड़ेगी,
सिके आगे झुक गये सिद्धियों के स्वामीउस जादू को कुछ नयी आंधियां तोड़ेंगी।
ऐसा टूटेगा मोहएक दिन के भीतरइस राग-रंग की पूरी बर्बादी होगी,
जब तक  देश के घर-घर में रेशम होगातब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी

 

9.    प्रेमचंद ,साहित्य का उद्देश्य ,जीवन में साहित्य का स्थान ,हंस प्रकाशनइलाहाबाद,पृष्ठ संख्या-24-25

10. Dilī'ē di'ālā vēkha dēġa'ca ubaladā nī, ajē tērā dila nā ṭharē. Matīdāsa tā'īṁ cīra ārē vāṅga jībha tērī, ajē tā'īṁ mana matī'āṁ karē. Lōkāṁ dī'āṁ bhukhāṁ utē fatahi sāḍī dēġa dī. Lōkāṁ di'āṁ dukhāṁ utē fatahi sāḍī tēġa dī. Asīṁ tāṁ ā mauta dē cabūtarē'tē āṇa khaṛhē. Iha tāṁ bhāvēṁ khaṛhē nā khaṛhē. Tērē tāṁ pi'ādē nirē khētāṁ dē prēta nī. Tilāṁ dī pūlī vāṅgū jhāṛa laindē khēta nī. Vēkha kivēṁ naramē dē ḍhērāṁ dē vicālē lōkīṁ, saundē nē gharōṛē tē raṛē. Lāla kilē vica lahū lōkāṁ dā jō kaida hai. Baṛī chētī ihadē barī hōṇa dī umaida hai. Piḍāṁ vicōṁ turē hō'ē puta nī bahādarāṁ dē, tērē mahilīṁ vaṛē ki vaṛē. Sirāṁ vālē lōkīṁ bīja calē āṁ bē'ōṛa nī. Ika dā tū mula bhāvēṁ rakha dīṁ karōṛa nī. Lōka ainē saghaṇē nē lakhī dē jagala vāṅgū, sigha taithōṁ jāṇē nā phaṛē. Saca mūharē sāha tērē jāṇagē utāhāṁ nū. Gala nahīṁ ā'uṇī tērē jhūṭhi'āṁ gavāhāṁ nū. Sagatāṁ dī satha vica jadōṁ tainū ḵẖūnaṇē nī, lai kē faujī ḵẖālasē khaṛhē. Dilī'ē di'ālā vēkha dēġa'ca ubaladā nī, ajē tērā dila nā ṭharē. Matīdāsa tā'īṁ cīra ārē vāṅga jībha tērī, ajē tā'īṁ mana matī'āṁ karē.

 

 

 

ग्रंथ सूची :–

 

1.    Stroke, E.(2008).Traditional Elites in The Great Rebellion Of 1857 Some Aspects Of Rural Revolt In The Upper And Central Doab. In B. Pati(Eds.).The 1857 Rebellion(Pp. 185-203).New Delhi : Oxford University Press.

2.    Narayan, B.(2008).Popular Culture And 1857 Memory Against Forgetting. In B. Pati(Eds.).The 1857 Rebellion(Pp. 272-280).New Delhi : Oxford University Press.

3.    Bndyopadhyay, S.(2017).From Plassey to Partition and After: A history of Modern India(Second Ed.).Hyderabad, Telangana: Orient Blackswan Private Limited ,Early Indian Responses: Reform And Rebellion ,P.P.- 169-183

4.    Pati,B.(2010). Introduction: The Great Rebellion of 1857. In B. Pati(Eds.). The Great Rebellion Of 1857in India: Exploring Transgressions, Contestsand Diversities (Pp. 1-15).N.Y.: Routledge

5.    Lahiri, N. (2003). Commemorating And Remembering 1857: The Revolt in Delhi and Its Afterlife. World Archaeology, 35(1), 35-60. Retrieved From Http://Www.Jstor.Org/Stable/3560211

6.    Naim, C.M., Ghalib’s Delhi: A Shamelessly Revisionist Look at Two Popular Metaphors(For Ralph Russell),The Annual of Urdu Studies ,3-24. Http://Www.Urdustudies.Com/Pdf/18/06naimghalib.Pdf

7.    Datta, V. (2003). Ghalib's Delhi. Proceedings of the Indian History Congress, 64, 1103-1109. Retrieved From Http://Www.Jstor.Org/Stable/44145537

8.    Farooqui,M.(2012).Besieged :Voices from Delhi 1857.New Delhi: Penguin Books.1857 And the Mutiny Papers, Pp 1-51.

9.    Farooqui, M.(2012).Besieged :Voices from Delhi 1857.New Delhi: Penguin Books. Dateline. P.P. Xix-Xxvii.

10. Farooqui,M.(2012).Besieged :Voices from Delhi 1857.New Delhi: Penguin Books.The Delhi Urdu Akhbar May-September 1857.P.P. 341-393.

11. दस्तंबू १८५७ की डायरी ,ग़ालिब .मिजा ,हसन सैयद(अनुवादक),अब्दुल बिस्मिल्लाह (संपादक),(2012),दिल्ली : राजकमल स्टूडियो ,पृष्ठसंख्या -१७-६८.

12. Robinson,F.&Holloway, R..(Eds.)(2010). The Great Fear of 1857 : Rumours, Conspiraciesand the Making of The Indian Uprising. Warner Kim .A, United Kingdom.P.P.185-210

13. http://defencejournal.com/dec99/1857.htm...7/September/2019,13:00.

14. प्रेमचंद ,साहित्य का उद्देश्य ,साहित्य का उद्देश्यहंस प्रकाशनइलाहाबाद

15. प्रेमचंदसाहित्य का उद्देश्यसाहित्य का आधारहंस प्रकाशन ,इलाहाबाद

16. प्रेमचंद ,साहित्य का उद्देश्य ,जीवन में साहित्य का स्थान ,हंस प्रकाशनइलाहाबाद

17. बजरंग बिहारी तिवारीसाहित्य और राजसत्ताजनसत्ता, 21 जुलाई 2021